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भगवती आराधना अपनी इस टीकाको मूलाराधना' दर्पण नाम दिया है तथापि उन्होंने भी उसकी स्तुति करनेसे पूर्व 'भगवतीमाराधनामभिष्टौतुं' लिखकर भगवती आराधना नाम ही स्वीकार किया है।
'आराधना' के नामसे पाये जानेवाले ग्रन्थोंकी एक विस्तृत तालिका जिनरत्नकोशमें दी है तथा सीधी सिरीजसे प्रकाशित वृहत्कथाकोशकी अपनी विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावनामें स्व० डा० ए० एन० उपाध्येने उसे विस्तारसे दिया है। उसे देखकर प्रतोत होता है कि जैन परम्परामें प्रारम्भसे ही आराधनाका कितना महत्त्व रहा है। यथार्थमें आराधना पूर्ण जोवन ही सच्चा जीवन है। दूसरे शब्दोंमें आराधना पूर्वक मरण ही यथार्थ मरण है । उसके अभावमें न जीवन, जीवन है और न मरण मरण है।
इस भगवती आराधनामें (गा० ६५२) कहा है कि चार निर्यापक समाधिमरण करनेवाले क्षपकको नित्य धर्मकथा सुनाते हैं । फलतः इसमें दृष्टान्त रूपसे अनेक कथा प्रसंगोंका निर्देश है। जिनको संकलित करके अनेक कथाकोश रचे गये हैं। आचार्य प्रभाचन्द्रने अपने गद्यकथाकोशकी पुष्पिकामें उसका नाम आराधना कथा प्रबन्ध दिया है। ब्रह्म नेमिदत्तके भी कथाकोशका नाम आराधना कथाकोश है। एक कथाकोश प्राचीन कन्नड़ भाषामें भी है उसका नाम वड्ढाराधना है । उसकी मूडविद्रीकी प्रतिमें उसका पुष्पिका वाक्य इस प्रकार है
ई पेल्द पत्तोवतु कथेगल् शिवकोट्याचार्यर् पेल्द वोड्डाराधनेय कवचवु मंगल महाश्री'। इसमें वड्डाराधनाको शिवकोटि आचार्यकी कृति कहा है। वड्डाराधनाका अर्थ होता है बड़ी आराधना। इससे यह प्रकट होता है कि उत्तरकालमें आराधना विषयक अन्य ग्रन्थोंसे इसकी विशिष्टता बतलाने के लिये या उनसे इसका पृथक् अस्तित्व और महत्त्व प्रदर्शित करनेके लिए आराधना नामके साथ वृहत् या मूल विशेषण लगाकर इसे वड्डाराधना या मूलाराधना नाम भी दिया गया है । किन्तु मूलनाम मात्र आराधना ही है । विषय परिचय
जैसा कि इस ग्रन्थके नामसे प्रकट है, इस ग्रन्थमें आराधनाका वर्णन है। ग्रन्थकी प्रथम गाथामें ग्रन्थकारने चार प्रकार की आराधनाके फलको प्राप्त सिद्धों और अर्हन्तोंको नमस्कार करके आराधनाका कथन करनेकी प्रतिज्ञा की है और दूसरी गाथामें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और तपके उद्योतन, उद्यवन, निर्वहन, साधन और निस्तरणको आराधना कहा है । टीकाकारने अपनी टीकामें इनको स्पष्ट किया है।
अन्य जैन ग्रन्थोंमें भी सम्यग्दर्शन आदिका कथन है किन्तु उनके साथ आराधना शब्दका . प्रयोग तथा उद्योतन आदिरूपसे उनका कथन नहीं पाया जाता ।
- तीसरी गाथामें संक्षेपसे आराधनाके दो भेद कहे हैं-प्रथम सम्यक्त्वाराधना और दूसरी चारित्राराधना । चतुर्थ गाथामें कहा है कि दर्शनको आराधना करने पर ज्ञानकी आराधना नियमसे होती है किन्तु ज्ञानकी आराधना करने पर दर्शनकी आराधना भजनीय है, वह होती भी है और नहीं भी होती, क्योंकि सम्यग्दर्शनके होनेपर सम्यग्ज्ञान नियमसे होता है परन्तु ज्ञानके होने पर सम्यग्दर्शनके होनेका नियम नहीं है।
१. देखो, हरिषेणकृत वृहत्कथाकोशकी डा. उपाध्ये को प्रस्तावना पृ० ६८ ।
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