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आराधना कथा कोश
कुन्दपुष्प, चन्द्र आदिके समान निर्मल और कीर्तियुक्त श्री कुन्दकुन्दाचार्यकी आम्नायमें श्रीमल्लिभूषण भट्टारक हुए। श्रुतसागर उनके गुरुभाई हैं | उन्हींकी आज्ञासे मैंने यह कथा श्रीसिंहनन्दी मुनिके पास रहकर बनाई है । वह इसलिये कि इसके द्वारा मुझे सम्यक्त्वरत्नकी प्राप्ति हो ।
२. भट्टाकलंकदेवकी कथा
मैं जीवोंको सुख देनेवाले जिनभगवान्को नमस्कारकर, इस अध्याय में भट्टाकलंक देवकी कथा लिखता हूँ जो कि सम्यग्ज्ञानका उद्योत करनेवाली है ।
भारतवर्ष में एक मान्यखेट नामका नगर था । उसके राजा थे शुभतुंग और उनके मंत्री का नाम पुरुषोत्तम था । पुरुषोत्तमकी गृहिणी पद्मावती थी । उसके दो पुत्र हुए । उनके नाम थे अकलंक और निकलंक । वे दोनों भाई बड़े बुद्धिमान गुणी थे ।
एक दिनकी बात है कि अष्टाह्निका पर्वकी अष्टमी के दिन पुरुषोत्तम और उसकी गृहिणी बड़ी विभूति के साथ चित्रगुप्त मुनिराजकी वन्दना करने को गई । साथमें दोनों भाई भी गये । मुनिराजकी वन्दनाकर इनके माता- पिताने आठ दिनके लिये ब्रह्मचर्य लिया और साथ ही विनोदवश अपने दोनों पुत्रोंको भी उन्होंने ब्रह्मचर्य दे दिया ।
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कुछ दिनों बाद पुरुषोत्तमने अपने पुत्रोंके ब्याहकी आयोजना की । यह देख दोनों भाइयोंने मिलकर पितासे कहा - पिताजी ! इतना भारी आयोजन, इतना परिश्रम आप किसलिये कर रहे हैं ? अपने पुत्रों की भोली बात सुनकर पुरुषोत्तमने कहा- यह सब आयोजन तुम्हारे ब्याह के लिये है । पिताका उत्तर सुनकर दोनों भाइयोंने फिर कहा - पिताजी ! अब हमारा ब्याह कैसा ? आपने तो हमें ब्रह्मचर्य दे दिया था न ? पिताने कहा नहीं, वह तो केवल विनोदसे दिया गया था । उन बुद्धिमान् भाइयोंने कहा - पिताजी ! धर्म और व्रतमें विनोद कैसा ? यह हमारी समझमें नहीं आया । अच्छा आपने विनोदहीसे दिया सही, तो अब उसके पालन करनेमें भी हमें लज्जा कैसी ? पुरुषोत्तमने फिर कहा - अस्तु । जैसा तुम कहते हो
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