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अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च,
2016
समयसार में जीवन दृष्टि
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- डॉ. दिलीप धींग
समयसार में जीव और अजीव, दर्शन और अध्यात्म, स्वद्रव्य और परद्रव्य, स्व- कर्तृत्व और पर कर्तृत्व, स्व- भोक्तृत्व और पर- भोक्तृत्व आदि विषयों की गंभीर दार्शनिक चर्चा की गई है। इस गंभीर दार्शनिक चर्चा में भी सामान्य जन और जीवन के लिए बहुत सारी उपयोगी शिक्षाएँ मिलती हैं। कोई भी दर्शन या सिद्धांत तब ही अधिक उपयोगी होता है, जब वह जीवन और व्यवहार से भी जुड़े। समयसार में आई हुई दार्शनिक और तत्त्वज्ञान की चर्चाएँ जीवन व्यवहार और लोकाचार के लिए भी बहुत उपयोगी है। उदाहरण के लिए जब व्यक्ति यह जान लेता और मान लेता है तो वह किसी भी पर वस्तु का कर्ता नहीं है तो उसका अहंकार और ममकार खत्म हो जाता है। इसी प्रकार जब जीव जान लेता है कि वह पर का भोक्ता नहीं हो सकता है तो उसकी भोगासक्ति कम हो जाती है। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि समस्त भौतिक और मानसिक दुःखों का मूल व्यक्ति की भोगासक्ति ही है। स्वकर्तृत्व और स्व- भोक्तृत्व का भाव व्यक्ति को परभावों से दूर करता है और स्वभाव में स्थित होने में सहायक बनता है। यह स्वभाव ही व्यक्ति में प्रभाव पैदा करता है। अनासक्ति का बोध :
अकर्ता, अकर्म और अभोक्ता के भाव से व्यक्ति अनासक्त होकर जीने का अभ्यासी बन जाता है। समयसार में कहा गया है कि राग से कर्म बंधन होता है तथा वैराग्य कर्मों से छुटकारे का कारण है। अतः रागमुक्त और अनासक्त जीवन जीना चाहिये। आचार्य कुन्दकुन्द की यह शिक्षा साधु के साधुत्व की रक्षा करती है और की रक्षा करती है और गृहस्थ को अनासक्त जीवन जीने की प्रेरणा देती है। कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि वैद्य जहर खा लेने पर भी नहीं मरता है, क्योंकि वह जहर को प्रभावरहित करने की प्रक्रिया जानता है। अनासक्ति से कर्म और कर्मफल चेतना को प्रभावहीन बना