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अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016
83 जैन-दर्शन पदार्थ को उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक कहता है किन्तु जिसकी उत्पत्ति हो रही है उसीका विनाश भी हो रहा है तथा इन्हीं दोनों प्रक्रियाओं के मध्य में पदार्थ का स्थायित्व भी कायम है यह कहना कठिन लगता है। अतः यहाँ स्याद्वाद से यह समझ आता है कि परिवर्तन का नाम ही उत्पाद (उत्पत्ति) तथा व्यय (नाश) है तथा एक साथ सम्पूर्ण नाश होने पर या आंशिक नाश होने पर भी वस्तु का स्थायित्व बना रहता है यथा जगत्प्रसिद्ध श्लोक है
घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम्।
शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम्॥ स्याद्वाद के चरमोत्कर्ष को अनुभव करना हो तो आचार्य अकलंकस्वामी कृत स्वरूप-सम्बोधन का अध्ययन अवश्यमेव करना चाहिए। आप ग्रन्थ के मंगलाचरण में ही सर्वथा विरोधाभास कथन करके पाठकों को अचम्भित करते हैं। ग्रन्थ में परमात्मा को मुक्तरूप तथा अमुक्तरूप एक साथ कहा है, परमात्मा कर्मादि कमल कलंकों से मुक्त हैं किन्तु ज्ञानादि क्षायिक गुणों से संयुक्त हैं। अतः परमात्मा मुक्त-अमुक्त दोनों ही हैं। इसी प्रकार आत्मा को चेतनात्मक-अचेतनात्मक कहा है; प्रमेयत्वादि धर्म के कारण अचेतन हैं ज्ञान-दर्शन गुण के कारण चेतन हैं।"
ग्रन्थ में आचार्य श्री योगीन्द्रसागर जी ने उस संदेह को दूर किया है जहाँ स्यावाद के सप्त भेदों को परवर्ती आचार्यों के चिन्तन की उपज समझा। वस्तुतः ये सप्तभेद तीर्थकर उपदिष्ट हैं पश्चादवर्ती आचार्यों ने मात्र विषय को स्पष्ट किया है तथा गूढ शब्दों में उलझी विद्वत्-सुगम शैली को सामान्य सुलभ किया है। संदर्भ : 1. सर्वथा निषेधकोऽनेकांतता द्योतकः कथंचिदर्थे स्यात् शब्दो निपातः। पं.का. टीका 2. स्यादित्यव्ययमनेकां द्योतक। स्या. मं. 3. चारित्रोज्जवल....।।4।। 4. आप्तमीमांसा, श्लोक 59
5. मुक्तामुक्तैकरुपोयः...||1|| 6. प्रमेयत्व......।।3।।
- प्राध्यापक, जैन-दर्शन विभाग,
राष्ट्रीय संस्कृत संस्था, गोपालपुरा बाईपास, त्रिवेणी नगर, जयपुर-302018