Book Title: Anekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 223
________________ अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 जो इच्छइ निस्सरितुं संसारमहण्णवस्स संदस्स। कम्मिंधणाण डहणं सो झायइ अप्पयं सुद॥ मोक्षप्राभृतम् 26 जो मुनि अत्यन्त विस्तृत संसार महासागर से निकलने की इच्छा करता है वह कर्मरूपी ईधन को जलाने वाले शुद्ध आत्मा का ध्यान करता सव्वे कसाय मोत्तुं गारवमयरायदोसवामोहं। लोय ववहारविरदो अप्पा झाएइ झाणत्थो॥ मोक्षप्राभृत 27 ध्यानस्थ मुनि समस्त कषायों और गारव मय रागद्वेष तथा व्यामोह को छोड़कर लोकव्यवहार से विरत होता हुआ आत्मा का ध्यान करता है। मिथ्यात्व, अज्ञान, पाप और पुण्य को मन, वचन, काय रूप त्रिविध योगों से जोड़कर जो योगी मौनव्रत से ध्यानस्थ होता है वही आत्मा को द्योतित करता है- प्रकाशित करता है, आत्मा का साक्षात्कार करता है। मूलं शुद्धोपयोगः परमसमरसीभावदृक्स्कन्धबन्धः शाखा सम्यक्चरित्रं प्रसृमरविलसत्पल्लवाः क्षान्तिभावाः॥ छाया शान्तिः समन्तात्सुरभितकुसुमः श्रीचिदानन्दलीला, भूयात्तापोपशान्त्यै शिवसुखफलिनः संश्रयो योगिगम्यः॥ - वैराग्यमणिमाला 24 जिस वृक्ष की जड़ें शुद्धपयोग की हैं, जिसका श्रेष्ठ समताभाव तथा श्रद्धारूपी तना है, जिसमें सम्यक्चारित्र की शाखायें हैं, जिसमें समताभाव के कोमल सुन्दर पत्ते हैं, जिसकी सर्वत्र शान्तिरूपी छाया है, ऐसा योगियों द्वारा प्राप्य शिवसुखरूपी वृक्ष का आश्रम संसार के ताप की शान्ति के लिए हो। सिद्धिश्रीसंगसौख्यामृतरसभरितः सच्चिदानन्यरूपः। प्राप्तः पारं भवाब्धेर्गुणमणिनिकरोद्भरिरत्नाकरोऽपि॥ चैतन्योल्लासिलीलासमयमुपगतः प्राप्तसम्पूर्णशर्मा, योगीन्द्रर्बोधिलब्धः परमसमरसीभावगम्यः सुरम्यः॥ - वैराग्यमणिमाला 25

Loading...

Page Navigation
1 ... 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288