Book Title: Anekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 251
________________ अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 एवं पारस्परिक सम्बन्धों की यथार्थता को उजागर करने में जैनकर्मसिद्धान्त की महती भूमिका मानी जा सकती है। जैनकर्मसिद्धान्त प्राणियों के जीवन में दृष्टिगत मन-वचन-काय विषयक भौतिक कार्य (स्थूल कर्म) मोह-ममता, क्रोधादिक संवेदनापरक कार्य (सूक्ष्म कर्म) और ज्ञानावरणादिक के बंधोदयादिक कार्य ( (अति सूक्ष्म कर्म) के परस्पर निमित्त नैमित्तिक सम्बन्धों की साक्षी में प्राणीगत जीवनमूल्यों के अध्ययन-अध्यापन की व्यवस्थित पद्धति को प्रस्तुत करता है। इसलिये इस प्रकार की ज्ञानविधा या विचारधारा को ही कर्मवाद कहना संभव है। प्रायः सभी भारतीय दर्शन शास्त्रों में कर्मवाद की विविध अवधारणायें प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से स्वीकृत हुई हैं। जैनकर्मसिद्धान्त के आलोक में जैनदार्शनिक सचमुच ही कर्मवाद की सुव्यस्थित एवं सटीक प्ररूपणा जिस व्यापाक पटल पर करते हैं उससे जीवन मूल्य विषयक चिरन्तन सत्यों की अभिव्यञ्जना होती है। जहाँ हम प्राणी जगत् के समूचे व्यवहारों को निमित्त-नैमित्तिक परिवेश में समझने की क्षमता अर्जित कर लेते हैं। यदि हम मनुष्यजीवन में व्याप्त आमूलचूल जीवन व्यवहारों को व्यवस्थित ज्ञान की कसौटी पर कसकर उनकी समीचीनता को जानना चाहें तो जैनकर्मसिद्धान्त अपनी विविधप्ररूपणाओं से हमें संतुष्ट करने में सक्षम है और सर्वत्र अपनी अदूषित एवं पूर्वापरविरोधशून्य प्ररूपणायें करने वाला होने से अपराजेय ही अधिगत होता है। इस परिचिति के लिये कर्मवाद के परिज्ञापक जिन आधारभूत तथ्यों को जानना जरूरी है वे हैं1. जैनकर्मसिद्धान्त का मूल लक्ष्य जीवों को मुक्ति की अवधारणा से परिचय कराना है और तदर्थ पुरुषार्थ हेतु उन्हें प्रेरित करना है। 2. जैनकर्मसिद्धान्त वस्तुस्वातंत्र्य का ही समर्थक है और संसारी आत्माओं को पूर्ण स्वतंत्र या स्वाधीन होने हेतु मुक्ति पुरुषार्थ को प्रेरणा देता है। 3. जैनकर्मसिद्धान्त कोरी कल्पनाओं एवं अन्धविश्वासजन्य अवधारणाओं का समर्थक एवं परतंत्रता का प्रस्थापक नहीं है। 4. प्राणीजगत् के रहस्यों एवं जीवनमूल्यों को जैनकर्मसिद्धान्त से यथार्थ रूप में समझना हम सबको संभव है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288