Book Title: Anekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 267
________________ अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 75 सामान्य विशेष उभय रूप है। वैशेषिक सूत्र (1/2/5) में कहा गया है "द्रव्यत्वं गुणत्वं कर्मत्वं च सामान्यानि विशेषाश्च" द्रव्य, गुण और कर्म को युगपद् सामान्य विशेष-उभय रूप मानना यही तो अनेकान्त है। द्रव्य किस प्रकार सामान्य विशेषात्मक है, इसे स्पष्टकरते हुए वैशेषिकसूत्र (9/2/3) में कहा गया है सामान्यं विशेष इति बुद्ध्यपेक्षम्। सामान्य और विशेष-दोनों ज्ञान, बुद्धि या विचार की अपेक्षा से है। इसे स्पष्ट करते हुए भाष्यकार प्रशस्तपाद का द्रव्यत्वं पृथ्वीत्वापेक्षया सामान्यं सत्तापेक्षया च विशेष इति। द्रव्यत्व पृथ्वी नामक द्रव्य की अपेक्षा से सामान्य है और सत्ता की अपेक्षा से विशेष है। दूसरे शब्दों में एक ही वस्तु अपेक्षा भेद से सामान्य और विशेष दोनों ही कही जा सकती है। अपेक्षा भेद से वस्तु में विरोधी प्रतीत होने वाले पक्षों को स्वीकार करना- यही तो अनेकान्त है। 'सामान्य विशेष दोनों को स्वीकार करना- यही तो अनेकान्त है। उपस्कार कर्ता ने तो स्पष्टतः कहा है ‘सामान्यं विशेषसंज्ञामपि लभते'। अर्थात् वस्तु केवल सामान्य अथवा केवल विशेष रूप में होकर सामान्य विशेष रूप है और इसी तथ्य में अनेकान्त की प्रस्थापना है। पुनः वस्तु सत् असत् रूप है इस तथ्य को भी कणाद महर्षि ने अन्योन्याभाव के प्रसंग में स्वीकार किया है। वे लिखते हैं सच्चासत्। यच्चान्यदसदतस्तदसत्-वैशेषिक सूत्र (९/१/४-५) इसकी व्याख्या में उपस्कारकर्ता ने जैन दर्शन के समान ही कहा है यत्र सदेव घटादि असदिति व्यवह्रियते तत्र तादात्म्याभावः प्रतीयते। भवति हि असन्नश्वो गवात्मना-असन् गौरश्वात्मना-असन् पटो घटात्मना इत्यादि। तात्पर्य यह है कि वस्तु स्वस्वरूप की अपेक्षा से अस्ति रूप है और स्वरूप की अपेक्षा नास्ति रूप है। वस्तु में स्व की सत्ता की स्वीकृति और पर की सत्ता का अभाव मानना यही तो अनेकान्त है जो वैशेषिकों को भी मान्य है। अस्तित्व नास्तित्व पूर्वक और नास्तित्व अस्तित्व पूर्वक ही होता है।

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