Book Title: Anekant 2016 Book 69 Ank 01 to 03
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 281
________________ अनेकान्त 69/3, जुलाई-सितम्बर, 2016 हैं और क्षायिक सम्यक्त्व वीतराग सम्यक्त्व है। आचार्य ब्रह्मदेव सूरि सराग सम्यक्त्व और व्यवहार सम्यक्त्व एवं वीतराग सम्यक्त्व और निश्चय सम्यक्त्व में समानता स्वीकारते हुए कहते हैं किशुद्धजीवादितत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं सरागसम्यक्त्वाभिधानं व्यवहारसम्यक्त्वं विज्ञेयम्। वीतरागचारित्राविनाभूतं वीतरागसम्यक्त्वाभिधानं निश्चयसम्यक्त्वं च ज्ञातव्यमिति।” अर्थात् शुद्ध जीवादि तत्त्वार्थों का श्रद्धान रूप लक्षण है जिसका उसे सराग सम्यक्त्व अथवा व्यवहार सम्यक्त्व जानना चाहिये और वीतराग चारित्र के बिना नहीं होने वाला वीतराग सम्यक्त्व अथवा निश्चय सम्यक्त्व जानना चाहिए। इसी प्रसंग को परमात्म प्रकाश ग्रन्थ के टीकाकार निरूपित करते हुए कहते हैं कि प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य आदि की अभिव्यक्ति सराग सम्यक्त्व का लक्षण है, वह ही व्यवहार सम्यक्त्व है और निज शुद्धात्मानुभूति लक्षणवाला और वीतराग चारित्र का अविनाभावी है वही वीतराग सम्यक्त्व निश्चय सम्यक्त्व कहलाता है। सम्यग्दृष्टि जीव अन्य मनुष्यों से कुछ विशेषताओं को धारण किये हए होते हैं जिनको ज्ञानीजन गण की उपमा देते हैं। सराग सम्यक्त्व के स्वरूप को बताते हुए प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य इन चार गुणों को प्रत्येक आचार्य ने अवश्य ही स्वीकार किया है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि जहाँ ये चारों गुण विद्यमान होंगे वहाँ उस जीव में सम्यग्दर्शन तो पाया ही जायेगा। इन चारों गुणों के मानने में किसी भी आचार्य में कोई भी मतभेद नहीं है। इन्हीं चारों का स्वरूप संक्षेप से आचार्य लिखते हैं प्रशम- पञ्चेन्द्रियों के विषयों में और अत्यधिक तीव्रभाव रूप क्रोधादिक कषायों में स्वरूप से शिथिल मन का होना ही प्रशम भाव कहलाता है। अथवा उसी समय अपराध करने वाले जीवों पर कभी भी उनके वधादि रूप विकार के लिये बुद्धि का नहीं होना प्रशम भाव कहलाता है। प्रशम भाव की उत्पत्ति में निश्चय से अनन्तानुबन्धी कषायों का उदयाभाव और अप्रत्याख्यानादि कषायों का मन्द उदय कारण है। सम्यग्दर्शन का अविनाभावी प्रशम भाव सम्यग्दृष्टि का परम गुण है। जो प्रशम भाव का झूठा अहंकार करते रहते हैं ऐसे मिथ्यादृष्टि जीवों के प्रशमाभास होता है।

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