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अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016
तप तपने वाले ऐसे ही तपस्वी मिले थे।
___चार आश्रमों की व्यवस्था भी चिन्त्य है। ब्राह्मण को ब्रह्मचारी और गृहस्थ के रूप में जीवन बिताने के बाद संन्यासी हो जाना चाहिए- यह नियम वैदिक साहित्य में नहीं मिलता। पौराणिक परम्परा के अनुसार राज्य त्यागकर वन में चले जाने की प्रथा क्षत्रियों में प्रचलित थी।
कविकुल गुरु कालिदास ने रघुवंश में रघुओं का वर्णन करते हुए कहा है
शैशवेऽभ्यस्तविद्यानां यौवने विषयैषिणाम्।
वार्धके मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजाम्॥ अर्थात् शैशवकाल में विद्याभ्यास करते हैं, यौवन में विषय भोग भोगते हैं, वृद्धावस्था में मुनिवृत्ति अर्थात् वानप्रस्थाश्रम में रहते हैं और अन्त में योग के द्वारा शरीर त्याग करते हैं।
गौतम धर्मसूत्र (8/8) में एक प्राचीन आचार्य का मत दिया है कि वेदों को तो एक गृहस्थाश्रम ही मान्य है। अथर्ववेद और ब्राह्मण ग्रंथों में ब्रह्मचर्याश्रम का, विशेषतः उपनयन का विधान है, किन्तु चार आश्रमों का उल्लेख छान्दोग्य उपनिषद् में है। वाल्मीकि रामायण में किसी संन्यासी के दर्शन नहीं होते. सर्वत्र वानप्रस्थ मिलते हैं।
लोकमान्य तिलक ने अपने गीता रहस्य में लिखा है- वेद, संहिता और ब्राह्मणों में संन्यास को आवश्यक नहीं कहा। उल्टे जैमिनी ने वेदों का यही स्पष्ट मत बतलाया है कि गृहस्थाश्रम में रहने से ही मोक्ष मिलता है। (दृष्टव्य है वेदान्तसूत्र 2, 4, 17, 20) और उनका यह कथन कुछ निराधार भी नहीं है, क्योंकि कर्मकाण्ड के इस प्राचीन मार्ग को गौण मानने का प्रारम्भ उपनिषदों में ही पहले पहल देखा जाता है। उपनिषदकाल में ही यह मत अमल में लाने लगा कि मोक्ष पाने के लिए ज्ञान के पश्चात् वैराग्य से कर्म संन्यास करना चाहिए।"
किन्तु प्राचीन उपनिषदों में वही पुरानी ध्वनि मिलती है। शतपथ ब्राह्मण (13, 4-1) में लिखा है- 'एतद् वै जरामर्थ सत्रं यद् अग्निहोत्रम्' अर्थात् जब तक जियो अग्नि अग्निहोत्र करो। ईशावास्योपनिषद् में कहा है- 'कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीवेषत् शतं समाः।' अर्थात् एक मनुष्य को