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अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016 इस प्रकार अनेक संदर्भ और भी वन्दना आवश्यक के भेद-प्रभेदों के सन्दर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य में खोजे जा सकते हैं। यहाँ प्रमुखता से ही विषय को प्रस्तुत किया गया है। (४) प्रतिक्रमण :
यह चतुर्थ आवश्यक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार में परमार्थ प्रतिक्रमण अधिकार की रचना की है। वे कहते हैं कि 'भेदाभ्यास होने पर जीव मध्यस्थ हो जाता है इसलिए चारित्र होता है। उसी चारित्र को दृढ़ करने के निमित्त से मैं प्रतिक्रमणादि कहूँगा। (नियम. गाथा-82)
व्यवहार में प्रतिक्रमण का क्या स्वरूप है? उसका वर्णन तो आचार्य वट्टकेर 'मूलाचार' में करते ही हैं। अतः आचार्य कुन्दकुन्द अपनी रचनाओं में 'परमार्थ प्रतिक्रमण' अर्थात् निश्चय प्रतिक्रमण का स्वरूप इसीलिए बताने का प्रयत्न करते हैं, क्योंकि उसके बिना व्यवहार प्रतिक्रमण भी कार्यकारी नहीं होता है।
प्रतिदिन किये जाने वाले वचनमय प्रतिक्रमण से ऊपर उठने की चर्चा वे करते हैं
मोत्तूणवयणरयणं रागादीभाववारणं किच्चा। अप्पाणं जो झायदि तस्स दु होदित्ति पडिकमणं॥ (नियम.83)
अर्थात् वचन रचना को छोड़कर रागादि भावों का निवारण करके जो आत्मा को ध्याता है, उसे प्रतिक्रमण होता है। इसी प्रकार आगे की गाथाओं में निम्नलिखित प्रकार से वर्णन है
वह जीव प्रतिक्रमणमय होने से प्रतिक्रमण कहलाता है(1) जो विराधन को विशेषतः छोड़कर आराधना में वर्तता है। (नि.84) (2) जो अनाचार छोड़कर आचार में स्थिर भाव करता है। (निय.85) (3) जो उन्मार्ग को छोड़कर जिनमार्ग में स्थिर भाव करता है।(नि.86) (4) जो साधु शल्यभाव छोड़कर निःशल्य भाव से परिणमित होता है। (नियम.87) (5) जो साधु अगुप्तिभाव छोड़कर त्रिगुप्तिगुप्त रहता है। (नियम.88) (6) जो आर्त्त रौद्र ध्यान छोड़कर धर्म अथवा शुक्लध्यान को ध्याता है।