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अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016 धनिकों के दूषित सोच पर चोट करते हुए कहा है कि-"अरे, धनिकों का धर्म दमदार होता है। उनकी कृपा कृपणता पर होती है, उनके मिलने से कुछ मिलता नहीं/ काकतालीय न्याय से/कुछ मिल भी जाय/वह मिलन लवण-मिश्रित होता है/ पल में प्यास दुगुनी हो उठती है।"18
जिन्हें धन का लोभ होता है। ऐसे व्यक्ति सामाजिक संस्कारों को भी अपनी धनलिप्सा पूर्ति का माध्यम बना लेते हैं। जैसे पाणिग्रहण संस्कार में दहेज की मांग। लोभी व्यक्ति अपने सेवकों से भी अनुचित सेवा करवाते हैं, वेतन भी उचित नहीं देते। यदि उन्हें कुछ देना भी पड़ता है तो इसमें भी उनकी दुर्भावना साफ दिखाई देती है। 'मूकमाटी' में आचार्य श्री कहते हैं कि
सन्तों ने पाणिग्रहण संस्कार को/धार्मिक संस्कृति का संरक्षक एवं उन्नायक माना है, परन्तु खेद है कि/ लोभी पापी मानव/ पाणिग्रहण को भी प्राण ग्रहण का रूप देते हैं/ प्रायः अनुचित रूप से सेवकों से सेवा लेते हैं और/ वेतन का वितरण भी अनुचित ही। ये अपने को बताते/मनु की सन्तान!/महामना मानव! देने का नाम सुनते ही/इनके उदर हाथों में पक्षाघात के लक्षण दिखने लगते हैं, फिर भी एकाध बूंद के रूप में/जो कुछ दिया जाता
या देना पड़ता/वह दुर्भावना के साथ ही।१९ अर्थ ही सबकुछ नहीं- वर्तमान में ऐसा माना जाता रहा है जैसे सभी कार्यों का एक ही लक्ष्य है- अर्थ का संकलन। यह सोच उचित नहीं है। आचार्य श्री कला का अर्थ; जो आत्मा को सुख देता है वैसा कार्य मानते हैं। मात्र अर्थ के लिए आजीविका भी उचित नहीं है क्योंकि कला से सुख मिलता है न अर्थ में सुख है, न अर्थ से सुख है। वे लिखते हैं
सकल-कलाओं का प्रयोजन बना है/केवल अर्थ का आकलन-संकलन।/आजीविका से ...... जीभिका सी गन्ध आ रही है/नासा अभ्यस्त हो चुकी है