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अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016
धर्म अर्थ और काम पुरुषार्थ से गृहस्थ जीवन शोभा पाता है। संग्रहवृत्ति और अपव्यय रोग से/ पुरुष को बचाती है सदा,
अर्जित अर्थ का समुचित वितरण करके।" आचार्य श्री ने स्त्री शब्द का महिमामय अर्थ करते हुए कहा है कि
'स' यानी सम-शील संयम 'त्री' यानी तीन अर्थ है धर्म, अर्थ, काम पुरुषार्थ में पुरुष को कुशल संयम बनाती है
सो..........स्त्री कहलाती है। धन, धनिक और निर्धन की स्थिति- 'मूकमाटी' में शब्दों में निहित अर्थ की प्रसिद्धि की गयी है। हमें 'मूकमाटी' में रचयिता के शब्दशास्त्री होने का पदे-पदे ज्ञान होता है। वे धन, धनिक और निर्धन की स्थिति बताते हुए बड़ी मौलिक बात कहते हैं कि धन का स्वयं में कोई मूल्य नहीं है, उसका जीवन पराश्रित है फिर भी व्यक्ति धन के अभाव में स्वयं को निर्धन और धन सम्पन्नता होने पर स्वयं को विषयान्ध और मदान्ध बना लेता है। वे लिखते हैं कि
स्वर्ण का मूल्य है/ रजत का मूल्य है कण हो या मन हो/ प्रति पदार्थ का मूल्य होता ही है/परन्तु धन का अपने आप में मूल्य/कुछ भी नहीं है। मूलभूत पदार्थ ही/मूल्यवान होता है। धन कोई मूलभूत वस्तु है ही नहीं धन का जीवन पराश्रित है पर के लिए है, काल्पनिक। हाँ! हाँ!! धन से अन्य वस्तुओं का/मूल्य आंका जा सकता है वह भी आवश्यकतानुसार, कभी अधिक कभी हीन
और कभी औपचारिक/ और यह सब धनिकों पर आधारित है/धनिक और निर्धन/ये दोनों वस्तु के सही-सही मूल्य को स्वप्न में भी नहीं आँक सकते,