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अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016 सोम पीते, गीत गाते तथा आनन्द से जीवन व्यतीत करते थे। ऋग्वेद के अध्येता इस तथ्य को जानते हैं कि इस समय तक वैदिक आर्यों का अधिकार सप्त सिंधु देश तक ही था। उनकी संस्कृति उच्च वर्ग के लिए पृथक् थी और दासों के लिए पृथक् थी। सम्भवतः जाति व्यवस्था का जन्म यहीं हुआ है और कालपुरुष की कल्पना कर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र की उसके सिर, छाती, उरु और पैरों में स्थापना कर जाति को अपरिवर्तनीय बना दिया।
मूल भारतीय संस्कृति में मानवीय समानता, आत्मविकास, गुणपूजा, परलोक, कर्मफल आदि पर अधिक जोर दिया जाता था जो सर्वथा स्वाभाविक था। जैनधर्म के बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत के काल में भी इस संस्कृति के मानने वालों को 'व्रात्य' कहा गया। बाद में उनको 'वषण' कहा गया। उन्हें अयज्वन, क्रव्याद आदि भी कहा जाता था, किन्तु जब वे उनकी तपस्या, आचार-विचार, अहिंसा, सत्य आदि से अधिक प्रभावित हुए तब उन्होंने उनका नाम श्रमण रखा। "श्रमण" शब्द का सर्वप्रथम उल्लेख हमें "माण्डूक्योपनिषद्' में मिलता है। उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि प्राग्वैदिक काल में अनेक आर्येतर जातियां थीं, जिनकी समुन्नत
और सुसंस्कृत परम्पराएं थीं, वे वातरसना, शिश्नदेव, व्रात्य आदि को मानती थी जिनके विषय में वेदों से विशेष जानकारी प्राप्त होती है। फिर भी भारत की इन मूल प्राचीन परम्पराओं की उपेक्षा भी कुछ इतिहासकारों ने कम नहीं की थी। इसलिए प्रो. हापकिन्स ने ठीक ही लिखा है कि भारत की धार्मिक क्रान्ति के अध्ययन में जो विद्वान् अपना सारा ध्यान आर्य जाति की ओर ही लगा देते हैं और भारत के समस्त इतिहास में द्रविड़ों ने जो बड़ा भाग लिया है उसकी उपेक्षा कर देते हैं वे महत्त्व के तथ्यों तक पहुंचने से रह जाते हैं।
शतपथ ब्राह्मण में ही तप से विश्व की उत्पत्ति बतलाई है। प्रतिदिन अग्नि होत्र करना एक प्रधान कर्म था। इसकी उत्पत्ति की कथा इस प्रकार बतलाई गई है
"प्रारम्भ में प्रजापति एकाकी था। उसकी अनेक होने की इच्छा हुई। उसने तपस्या की। उसके मुख से अग्नि उत्पन्न हुई; चूंकि सब