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अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016
स्वरचित ग्रन्थों में की है।
जिन षडावश्यकों का क्रम से उल्लेख हमें मूलाचार में मूल रूप से प्राप्त होता है, उन्हीं षडावश्यकों का क्या स्वरूप आचार्य कुन्दकुन्द ने अपने साहित्य में वर्णित किया है? उसकी प्रस्तुति करने का यहाँ प्रयास किया जा रहा है। (१) सामायिक :
आत्मा के समता परिणाम में स्थिर हो जाने को सामायिक कहते हैं। 'समय एव सामायिकम्'- (सर्वार्थसिद्धि 7/21) यहाँ आचार्य अमृतचन्द्र ने समय शब्द का अर्थ 'आत्मा' किया है। समयसार की गाथा 154 की टीका में आचार्य अमृतचन्द्र लिखते हैं
'समयसारभूतं सामायिकम्' सामायिक प्रथम आवश्यक है। प्रवचनसार में तो श्रमण का लक्षण ही यही कर दिया कि जो सुख दुःख में समान रहे वही श्रमण है।
'समणो सम सुह दुक्खो।' (प्रवचनसार-गा.१४)
इसी समता परिणाम की चारित्र हेतु अनिवार्यता बतलाते हुये मोक्षपाहुड में आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि निन्दा और प्रशंसा, दु:ख और सुख तथा शत्रु और मित्र में समभाव से ही चारित्र होता है
"जिंदाए य पसंसाए दुक्खे य सुहएसु य।
सत्तूणां चेव बंधूणं चारित्तं समभावदो॥' (मो.पा. ७२) नियमसार के परमसमाधि अधिकार में आचार्य कुन्दकुन्द सामायिक का वास्तविक स्वरूप समझाते हुए कहते हैं
'विरदो सव्वसावज्जे तिगुत्तोपिहिदिदिओ।
तस्स सामायिगं ठाइ इदि केदलिसासणे॥' (नि.गा.१२५)
अर्थात् जो सर्वसावद्य में विरत है, जो तीन गुप्ति वाला है और जिसने इन्द्रियों को निरुद्ध किया है उसे सामायिक स्थायी है ऐसा केवली के शासन में कहा गया है।
इस प्रकार लगातार आठ गाथाओं के माध्यम से आचार्य कुन्दकुन्द ने वास्तविक शाश्वत सामायिक का स्वरूप बतलाया है, जिसका संक्षिप्त