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अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016 वर्णन निम्नानुसार है
उसे सामायिक स्थायी (शाश्वत) है - 1. जो स्थावर अथवा त्रस सर्व जीवों के प्रति समभाव वाला है। (गा.126) 2. जो संयम में, नियम में और तप में आत्मा के समीप है। (गा.127) 3. जिसे राग या द्वेष विकृति उत्पन्न नहीं करता। (गा. 128) 4. जो आर्त या रौद्र ध्यान को नित्य वर्जता है। (गा. 129) 5. जो पुण्य तथा पाप रूप भाव को नित्य वर्जता है। (गा. 130) 6. जो हास्य, रति, अरति, शोक, जुगुप्सा, भय और सर्व वेद को नित्य वर्जता है। (गा.131-132) 7. जो धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान को नित्य ध्याता है। (गा. 133)
इस प्रकार सामायिक को परमसमाधि के साथ जोड़कर देखा गया है और शाश्वत सामायिक का लक्षण ही परमसमाधि किया गया है
'परमसमाधि लक्षणं शाश्वतं सामायिकव्रतं भवतीति।' (गा.133, संस्कृत टीका)
जो इस समता परिणाम से रहित हैं उनको कोई लाभ नहीं होता इस बात को भी आचार्य कन्दकन्द इसी अधिकार में कहते हैं
"किं काहदि वणवासो कायकलेसो विचित्त उववासो। अज्झयमौणपहुदी समदारहियस्स समणस्स॥ (नि.गा. १२४)
अर्थात् वनवास, कायक्लेश रूप अनेक प्रकार के उपवास, अध्ययन, मौन आदि कार्य समता रहित श्रमण को क्या करते हैं? (क्या लाभ करते हैं?) अर्थात् कुछ नहीं करते।
प्रायः सामायिक पाठ तक ही सामायिक को सीमित मान लिया जाता है। अतः शाश्वत सामायिक के लक्षण रूप परमसमाधि को वचनोच्चारण की क्रिया से भी ऊपर उठकर देखने की बात कही गयी है
'वयणोच्चारणकिरियं परिचत्ता वीयरायभावेण। जो झायदि अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स॥ (नि.गा.१२२)
अर्थात् वचनोच्चारण की क्रिया परित्याग कर वीतराग भाव से जो आत्मा को ध्याता है, उसे परमसमाधि है।
यद्यपि अशुभ से बचने के लिए वचनों के द्वारा स्तवनादि परम