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अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016 जिन योगीश्वर को भी करने योग्य है, किन्तु परमार्थ से (निश्चय से) प्रशस्त-अप्रशस्त समस्त वचन सम्बन्धी व्यापार करने योग्य नहीं है। (नियम. गाथा 122 की संस्कृत टीका)
इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ने सामायिक आवश्यक के अन्तर्गत 'शाश्वत सामायिक' का स्वरूप समझाने का प्रयास किया है। (२) चतुर्विंशति स्तव :
इस आवश्यक की खोज यदि आचार्य कुन्दकुन्द के साहित्य में देखनी हो तो हमारी दृष्टि दशभक्ति संग्रह पर जाती है। जहाँ तीर्थकर भक्ति सिद्धभक्ति, श्रुतभक्ति, चारित्र भक्ति, योगि भक्ति, आचार्य भक्ति, निर्वाण भक्ति, पंच परमेष्ठि भक्ति से सम्बन्धित गाथायें रची गयीं हैं।
तीर्थंकर भक्ति का पाठ प्रथम गाथा में इस प्रकार होता हैथोस्सामि हं जिणवरे तित्थयरे केवली अणंतजिणे। णरपवरलोयमहिए विहुयरयमले महप्पण्णे॥ गाथा-१॥
अर्थात् जो कर्मशत्रुओं को जीतने वालों में श्रेष्ठ हैं, केवलज्ञान से युक्त हैं, अनन्त-संसार को जीतने वाले हैं, लोकश्रेष्ठ चक्रवर्ती आदि जिनकी पूजा करते हैं, जिन्होंने ज्ञानावरण, दर्शनावरण नामक रजरूपी मल को दूर कर दिया है तथा जो महाप्राज्ञ (उत्कृष्ट ज्ञानवान्) हैं ऐसे तीर्थंकरों की स्तुति करूँगा। स्तवनं स्तुतिः भजनं भक्तिः इस व्युत्पत्ति के अनुसार उपासना को भक्ति कहते हैं। 'पूज्यानां गुणेष्वनुरागी भक्तिः ' पूज्य पुरुषों के गुणों में अनुराग होना भक्ति है। यह भक्ति का वाच्यार्थ है।
मूलाचार में आचार्य वट्टकर ने चतुर्विशति स्तव का वर्णन करते समय जिनवर भक्ति से पूर्वसंचित कर्मों का क्षय हो जाता है- ऐसा कहा है- 'भत्तीए जिणवराणं खीयदि जं पुव्वसंचियं कम्म।
(मूला. गाथा 7/68)39 नियमसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने परम भक्ति अधिकार में भक्ति के वास्तविक स्वरूप को प्रकट किया है। वे प्रारम्भ में ही कहते हैं जो श्रावक या श्रमण रत्नत्रय की भक्ति करता है उसे निर्वृत्ति भक्ति (निर्वाण की भक्ति ) है