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अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016
स्थिर भाव करता है, उससे जीव का सामायिक गुण सम्पूर्ण होता है।
यहाँ आचार्य कुन्दकुन्द का अभिप्राय यह है कि आत्म स्वभावों में स्थिरता ही आवश्यक है। प्रश्न उठता है कि सामायिक आदि षट् आवश्यकों का जो कथन है वह क्या है? वास्तव में जो षट् आवश्यक बाह्य रूप से मुनिराजों के कहे हैं वे व्यवहार से हैं; जो अवश्य करणीय
किन्तु उन बाह्य क्रिया रूप जो षडावश्यक कहे हैं उनका उद्देश्य भी 'स्ववश' है अर्थात् आत्म स्वभावों में लीनता है और यदि आत्म स्वभावों में लीनता नहीं है तो वे व्यावहारिक क्रिया मात्र हैं उनका कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। बाह्य षडावश्यक का उद्देश्य है कि वह आन्तरिक आवश्यक को प्राप्त हो इसीलिए आचार्य कुन्दकुन्द ने दृढ़तापूर्वक जिस ग्यारहवें अधिकार में आवश्यक का कथन किया है उसका नाम 'निश्चय परमावश्यक' दिया है। संस्कृत टीकाकार ने गाथा-147 की संस्कृत टीका में ऐसा अभिप्राय व्यक्त किया है। आवश्यक कर्म किसको होता है यह समझाते हुए आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं
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परिचत्ता परभावं अप्पाणं झादि णिम्मलसहावं ।
अप्पवसो सो होदि हु तस्स दु कम्मं भांति आवासं ॥
अर्थात् जो परभाव को परित्याग कर निर्मल स्वभाव वाले आत्मा
को ध्याता है, वह वास्तव में आत्मवश है और उसे आवश्यक कर्म कहते
हैं।
यहाँ वास्तव में साक्षात् स्ववश परमजिनयोगीश्वर का स्वरूप कहा
स्व-वश रूपी आवश्यक में रहने वाले मुनि की तुलना टीकाकार
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ने सर्वज्ञ - वीतराग से की है
"सर्वज्ञवीतरागस्य स्ववशस्यास्य योगिनः ।
न कामपि भिदां क्वापि तां विद्मो हा जडा वयम् ॥'
अर्थात् सर्वज्ञ- वीतराग में और इस स्ववश योगी में कभी कुछ भी
भेद नहीं है, तथापि अरे रे ! हम जड़ हैं कि जो उनमें भेद मानते हैं।
इसीलिए इस प्रकार के आवश्यक से युक्त श्रमण अन्तरात्मा है। और आवश्यक रहित श्रमण वह बहिरात्मा है। "