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अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016
35 देवताओं में अग्नि प्रथम उत्पन्न हुई, इसी से उसे 'अग्नि' कहते हैं। उसका यथार्थ नाम अग्नि है। मुख से उत्पन्न होने के कारण अग्नि का भक्षक होना स्वाभाविक था, किन्तु उस समय पृथ्वी पर कुछ भी नहीं था। अतः प्रजापति को चिन्ता हुई। तब उसने अपनी वाणी की आहुति देकर अपनी रक्षा की। जब वह मरा तो उसे अग्नि पर रखा गया, किन्तु अग्नि ने उसके शरीर को ही जलाया। अतः प्रत्येक व्यक्ति को अग्नि होत्र करना चाहिए।" यदि नया जीवन प्राप्त करना चाहते हैं तो अग्नि होत्र करो।
ऋग्वेद का पहला मंत्र है “अग्निमीडे पुरोहितम्। यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नयातमस्।" अग्नि देवों के पुरोहित हैं। पुरोहित का अर्थ है"आगे रखा हुआ"। अग्नि में आहुति देकर ही देवों को तुष्ट किया जा सकता है।
ब्राह्मण ग्रंथों के काल में यज्ञों का प्राधान्य रहा। उनके पश्चात् आरण्यकों का समय आता है। देवता विशेष के उद्देश्य से द्रव्य का त्याग ही यज्ञ है-यह आरण्यकों को मान्य नहीं है। ब्राह्मण ग्रंथों का सर्वोच्च लक्ष्य स्वर्ग था और उसकी प्राप्ति का मार्ग था यज्ञ, किन्तु आरण्यकों में यह बात नहीं है। तैत्तिरीय आरण्यक में ही प्रथम बार "श्रमण" शब्द 'तपस्वी' के अर्थ में आया है।
ऋग्वेद के संकलयिता ऋषि अरण्यवासी ऋषियों से भिन्न थे। वे अरण्य में नहीं रहते थे। वैदिक साहित्य में “अरण्य" शब्द के जो अर्थ पाए जाते हैं उनसे इस पर प्रकाश पड़ता है। ऋग्वेद में गांव के बाहर की बिना जुती जमीन के अर्थ में 'अरण्य' शब्द का प्रयोग हुआ है। शतपथ ब्राह्मण में (5-3-35) में लिखा है- “अरण्य में चोर बसते हैं।" बृहदारण्यक (5-11) में लिखा है कि मुर्दे को अरण्य में ले जाते हैं, किन्तु छान्दोग्य उपनिषद् (8/5/3) में लिखा है कि अरण्य में तपस्वी जन निवास करते हैं।
विद्वानों का मत है कि जब वैदिक आर्य पूरब की ओर बढ़े तो यज्ञ पीछे रह गए और यज्ञ का स्थान तप ने ले लिया, किन्तु तप जो स्वीकार करने पर भी आर्य देवताओं के पुरोहित अग्नि को नहीं छोड़ सके। अतः पंचाग्नि तप प्रवर्तित हुआ। भगवान् पार्श्वनाथ को गंगा के तट पर पंचाग्नि