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अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016 अथवा वचन-शक्ति से युक्त जो पुद्गल है वे वचन द्रव्य कहलाते हैं। आठ अंग और अनेक उपांगों से युक्त मुनि का जो शरीर है वह काय द्रव्य है। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये पांच इन्द्रियाँ हैं। इनके स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द ये पांच विषय हैं। ये विषय यथासंभव शक्ति रूप तथा व्यक्ति रूप होते हैं। इस प्रकार मन-वचन-काय रूप द्रव्य तथा स्पर्श आदि इन्द्रिय-सम्बन्धी जिनके अपने आपके सम्बन्ध को प्राप्त हैं अर्थात् परपदार्थ से हटकर आत्मा से सम्बन्ध रखते हैं अथवा 'आयत्ता' पाठ की अपेक्षा ये सब जिनके स्वाधीन हैं, ऐसे संयत अर्थात् संयमी मुनि का सचेतन शरीर जिनागम में आयतन कहा गया है।
मद आठ प्रकार का होता है जैसा कि श्री समन्तभद्र महाकवि ने कहा है
ज्ञानं पूजां कुलं जातिं बलमृद्धि तपो वपुः।
अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुर्गतस्मयाः॥ अर्थात् ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और शरीर, इन आठ का आश्रय कर अहंकार करने को निर्मद ऋषि मद कहते हैं। राग प्रीति को कहते हैं। द्वेष अप्रीति स्वभाव को कहते हैं। स्त्री, पत्र तथा मित्र
आदि के स्नेह को मोह कहते हैं। रोष रूप स्वभाव को क्रोध कहते हैं. मुर्छा रूप परिणाम अर्थात् परिग्रह को ग्रहण करने का जो स्वभाव है उसे लोभ कहते हैं। चकार से माया का ग्रहण होता है, दूसरे को ठगने का जो स्वभाव है, उसे माया कहते हैं। ये सब मद आदि विकार जिस महर्षि के-आचार्य, उपाध्याय और साधुः इन तीन भेद रूप मुनि के अधीन हैं-स्वीकार अथवा अस्वीकार करने के योग्य हैं। जो अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पाँच महाव्रतों को अथवा रात्रिभोजन त्याग के साथ छह महाव्रतों को धारण करने वाले हैं, ऐसे महर्षि आयतन कहे गये हैं। ये महर्षि ही सम्मुख-गमन करने योग्य हैं तथा दर्शन, स्पर्शन और वन्दना के योग्य हैं।
इनके सिवाय अन्य लिंगों को धारण करने वाले जटाधारी, पाशुपत, एकदण्ड अथवा तीन दण्ड को धारण करने वाले, मिथ्यादृष्टि होकर शिर मुड़ाने वाले, एक शिखा रखने वाले, दिगम्बर नामधारी, पशुयज्ञ करने