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अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016
णिज्जियदोसं देवं सव्वजिणाणं दयावरं धम्मं । वज्जियगंथं च गुरुं जो मण्णदि सो हु सद्दिट्ठी ॥ अर्थात् जो वीतराग अरहन्त को देव, दया को उत्कृष्ट धर्म और निर्ग्रन्थ को गुरु मानता है, वही सम्यग्दृष्टि है।
सम्यग्दर्शन को बनाये रखने के लिए 'आयतन' हैं और जिनसे सम्यग्दर्शन के विपरीत आचरण देखा जाता है वे अनायतन हैं। द्रव्यसंगह टीका में आया है कि - " सम्यक्त्वादिगुणानामायतनं गृहमावास आश्रय आधारकरणं निमित्तमायतनं भण्यते तद्विपक्षभूतमनायतनमिति । ” अर्थात् सम्यक्त्वादिगुणों का आयतन घर - आवास - आश्रय (आधार) करने का निमित्त, उसको आयतन कहते हैं और उससे विपरीत अनायतन है। आयतन को परिभाषित करते हुए आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने बोधपाहु में लिखा है कि
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मणवयणकायदव्वा आसता जस्स इंदिया विसया । आयदणं जिणमग्गे णिद्दिट्ठ संजय रूवं ॥ मय राय दोस मोहो कोहो लोहो य जस्स आयत्ता । पंचमहव्वयधरा आयदणं महरिसी भणियं ॥ सिद्धं जस्स सदत्थं विसुद्धझाणस्स णाणजुत्तस्स । सिद्धायदणं सिद्धं मुणिवरसहस्स मुणिदत्थं ॥
अर्थात् मन-वचन-काय रूप द्रव्य तथा इन्द्रियों के विषय जिससे
सम्बन्ध को प्राप्त हैं अथवा जिसके अधीन हैं, ऐसे संयमी मुनि का शरीर जिनागम में आयतन कहा गया है। मद, राग, द्वेष, मोह, क्रोध और लोभ जिसके अधीन हैं तथा जो पंच महाव्रतों को धारण करने वाले हैं, ऐसे महर्षि आयतन कहे गये हैं।
विशुद्धध्यान से सहित एवं केवलज्ञान से युक्त जिस श्रेष्ठ मुनि के निजात्मस्वरूप सिद्ध हुआ है, अथवा जिन्होंने छहद्रव्य, साततत्त्व, नवपदार्थ अच्छी तरह जान लिये हैं उन्हें सिद्धायतन कहा है। इसकी व्याख्या करते हुए श्री श्रुतसागर सूरि ने कहा है कि- हृदय के मध्य में आठ पांखुरी के कमल के आकार वस्तु स्वरूप के विचार में सहायक जो मानस द्रव्य है वह मन कहलाता है। हृदय आदि आठ स्थानों के आश्रित जो वचन हैं