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अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016
श्रमण संस्कृति की प्राचीनता एवं ऐतिहासिकता
- आचार्य राजकुमार जैन
अध्यात्म प्रधान श्रमण संस्कृति जिसे भारत की मूल संस्कृति कहा जाता है भारत में प्राचीनकाल से प्रवहमान विभिन्न मूल संस्कृतियों में अन्यतम है। पुरातात्त्विक साक्ष्यों, शिलालेखीय उद्धरणों, भाषा वैज्ञानिक अन्वेषणों, वैदिक वाङ्मय तथा प्राचीन साहित्य के अध्ययन-अनुशीलन के आधार पर अनेक विद्वानों ने इस तथ्य को स्वीकार किया है कि आर्यों के आगमन से पूर्व भारत में जो संस्कृति विद्यमान और प्रचलित थी उसका सीधा सम्बन्ध श्रमण या आर्हत् संस्कृति से है। श्रमण संस्कृति अपनी जिन विशेषताओं के कारण गरिमा मण्डित है उनमें श्रम, संयम, त्याग जैसे संस्कारों तथा आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों का महत्त्वपूर्ण स्थान है। श्रमण संस्कृति में प्रारम्भ से ही मानवीयता, समानता, आत्म विकास, गुण पूजा, कर्मफल, मुक्ति, परलोक आदि के विषय में गम्भीर चिन्तन और मनन किया गया है।
ऐसा माना जाता है कि भारतीय संस्कृति अनेक संस्कृतियों का मिश्रण है और उस भारतीय संस्कृति में श्रमण संस्कृति की नींव इतनी गहरी है कि उसके आधेश को खोज पाना सम्भव नहीं है। श्रमण संस्कृति यद्यपि आध्यात्मिक संस्कृति के रूप में जानी जाती है, तथापि अभ्युदय एवं निःश्रेयस दोनों ही उसके साध्य के आधार हैं जिसकी चरम परिणति मुक्ति या मोक्ष में है। अपने स्व-पर कल्याणकारी स्वरूप के कारण श्रमण संस्कति को जो श्रेष्ठता एवं उत्कष्टता प्राप्त है वह किसी अन्य संस्कति को प्राप्त नहीं है। यह बात अलग है कि इस देश में कालान्तर में जिन संस्कृतियों ने जन्म लिया उनमें सर्वाधिक रूप से विकसित संस्कृति मात्र श्रमण संस्कृति ही है जिसका स्वरूप हजारों वर्ष व्यतीत हो जाने के बाद आज भी अक्षुण्ण है। उसका कारण सम्भवतः यह है कि इसमें व्यक्ति को प्रधानता दी गई है और यही उसकी विशिष्टता है, क्योंकि व्यक्ति स्वकृत