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अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016
सकती है? सुख चूँकि आत्मा से बाहर दूसरे पदार्थों में नहीं है, इसलिये उन पदार्थों में उसकी तलाश फिजूल है, उसे अपनी आत्मा में ही खोजना चाहिये और यह मालूम करना चाहिये कि वह कैसे कैसे कर्मपटलों के नीचे दबा हुआ है। हमारी कैसी परिणतिरूपी मिट्टी उसके ऊपर आई हुई है और वह कैसे हटाई जा सकती है? परन्तु हम अपनी आत्मा की सुध भूले हुए हैं। उसकी सुख की निधि से बिल्कुल ही अपरिचित और अनभिज्ञ हैं और इसीलिये सुख की तलाश आत्मा से बाहर दूसरे पदार्थों में विजातीय वस्तुओं में करते हैं। सुख की प्राप्ति के लिये उन्हीं के पीछे पड़े हुए हैं- यहाँ से सुख मिलेगा, यह भी हमको सुख दे सकेगा, इसी प्रकार के विचारों से बंधे हुए हम उन्हीं पदार्थों का संग्रह बढ़ाते जाते हैं, उन्हीं की जरूरियात को अपने जीवन के साथ चिपटाते रहते हैं और इस तरह खुद ही अपने को दुःखों के जाल में फँसाते और दुखी होते हैं, यह अजब तमाशा है !!!
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आचार्य पूज्यपाद स्वामी- 'इष्टोपदेश' में लिखते हैं वासना मात्रमेवैतत्, सुखं दुःखं च देहिनाम्। तथा ह्युद्वेजयन्त्येते, भोगा रोगा इवापदि ॥ ६ ॥
संसारी जीवों को इन्द्रियों से प्राप्त सुख - दुःख कल्पना मात्र
वास्तविक नहीं हैं। अतः ये इन्द्रियों के भोग, आपत्ति के समय रोगों की तरह आकुलता पैदा करते हैं।
पद्यानुवाद- पूज्य मुनि समतासागर जी
सुख दुख सब संसार के, हैं केवल भ्रम जाल ।
करें आकुलित रोग सम, भोग विपद के काल ॥