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अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016
णिव्वाणसाहणाइं भवकारणमट्टरुद्दाइं॥१६ ‘स्यातां तत्रातरौद्रे द्वे दुर्ध्यानेऽत्यन्तदुःखदे। धर्मशुक्ले ततोऽन्ये द्वे कर्मनिर्मूलनक्षमे॥'९७ 'आर्त रौद्रं च दुर्ध्यानं वर्जनीयमिदं सदा।
धर्म शुक्लं च सद्ध्यानमुपादेयं मुमुक्षुभिः॥१८ आर्तध्यान और रौद्रध्यान वस्तुतः दुर्ध्यान हैं। वास्तविक ध्यान तो धर्मध्यान और शुक्लध्यान ही हैं। अतः जो ध्यान कर्मों के संवर एवं निर्जरा के कारण बनते हैं, वे तो अन्तिम दो ही हैं। योगसाधना में भी ये दो ही प्रयोज्य हैं।
कतिपय अर्वाचीन ग्रन्थों में पिण्डस्थ, पदस्थ, रूपस्थ एवं रूपातीत इन चार अन्य ध्यानों का भी वर्णन मिलता है। इनका निर्देश भगवती आराधना, मूलाचार, ध्यानशतक आदि योग या अन्य ध्यानविषयक ग्रन्थों में उपलब्ध नहीं है। अर्धमागधी आगमों में भी इनका निर्देश नहीं किया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि वृहद्र्व्यसंग्रह में आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव ने जिन परमेष्ठीवाचक अनेक पदों के ध्यान का वर्णन किया है, उन पदों में पिण्डस्थ आदि ध्यानों के बीज खोजे जा सकते हैं। ध्यान के लिए प्रमुख रूप से तीन तत्त्वों का होना आवश्यक है- ध्याता, ध्येय और ध्यान। श्री शुभचन्द्राचार्य के अनुसार ध्याता का स्वरूप इस प्रकार है
"मुमुक्षुर्जन्मनिर्विण्णः शान्तचित्तो वशी स्थिरः।
जिताक्षः संवृतो धीरो ध्याता शास्त्रे प्रशस्यते॥२० मुमुक्षु, जन्म से निर्वेद युक्त, शान्तचित्त, वशी (संयमी), स्थिर, जितेन्द्रिय, संवरयुक्त एवं धीर ध्याता ही शास्त्र में प्रशंसनीय होता है। ध्यान के आलम्बन को ध्येय कहते हैं तथा एकाग्र चिन्तन का नाम ध्यान
कर्मसिद्धान्त
कर्मसिद्धान्त भारतीय संस्कृति की प्रमुख विशेषता है। सभी भारतीय धार्मिक परम्परायें अपने-अपने ढंग से कर्म की महत्ता को स्वीकार करके कर्मसिद्धान्त का प्रतिपादन करती है। डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं