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अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016
में कहा गया है -
'परलोककडा कम्मा इह लोए वेइज्जति।
इहलोककडा कम्मा इह लोए वेइज्जंति।'४१ श्री कुन्दकुन्दाचार्य भी लिखते हैं'जीवा पुग्गलकाया, अण्णोण्णा गाढगहणपडिबद्धा।
काले विजुज्जमाणा, सुहदुक्खं दिति भुंजंति॥४२
जीव और कर्मपुद्गल परस्पर प्रगाढ़ रूप से गहन मिले हुए हैं। समय पर वे पृथक-पृथक् भी हो जाते हैं। तब तक कर्म सुख-दु:ख देता है और जीव को वह भोगना पड़ता है।
। यद्यपि जैन, बौद्ध एवं वैदिक तीनों परम्परायें यह मानती हैं कि व्यक्ति को अपने द्वारा किये गये शुभाशुभ कर्मों का फल भोगना पड़ता है, तथापि वैदिक परम्परा में यह मान्यता है कि ईश्वर व्यक्ति के पापों या अशुभ फलों को अन्यथा रूप कर सकता है। व्यक्ति स्वयं अपना स्वामी नहीं है। महर्षि व्यास कहते हैं
'अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः।
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा॥४३ यह अज्ञानी प्राणी अपने सुख-दुःख का स्वामी नहीं है। ईश्वर की इच्छा से वह स्वर्ग या नरक जा सकता है।
वैदिकों का उक्त कथन जैनों को मान्य नहीं है। उनके अनुसार आत्मा अपना उत्थान-पतन का स्वयं कर्ता है। आचार्य अमितगति का कथन है
'स्वयं कृतं कर्म यदात्मना पुरा फलं तदीयं लभते शुभाशुभम्। परेण दत्तं यदि लभ्यते स्फुटं
स्वयं कृतं कर्म निरर्थक तदा॥४४ अपने पूर्वकृत कर्मों का ही शुभाशुभ फल हम भोगते हैं। यदि अन्य के द्वारा दिया गया फल भोगें तो हमारे स्वयं के द्वारा किया गया कर्म निरर्थक हो जायेगा।
अब प्रश्न यह उठता है कि जब कृत कर्म का फल अवश्य ही