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अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016 कर्म कहते हैं। जैसे तपाया गया लोहे का गोला पानी में डालने पर चारों ओर के पानी को अपनी ओर खींच लेता है, वैसे ही आत्मा भी राग-द्वेष के वशीभूत होकर कर्म पुद्गलों को अपनी ओर खींच लेता है। अथवा आत्मा की राग-द्वेष रूप क्रिया से जो कर्मयोग्य पुद्गल परमाणु चुम्बक की तरह आकृष्ट होकर आत्मप्रदेशों के साथ बंध जाते हैं, वे कर्म कहलाते हैं। वस्तुतः मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से जो किया जाता है, वह कर्म है। ये पांचों ही बन्ध के कारण है, किन्तु बन्ध में कषाय (राग-द्वेष) की मुख्य भूमिका है, क्योंकि जब जीव कषाययुक्त होने के कारण कर्म के योग्य पुद्गल परमाणुओं को ग्रहण करता है तभी बन्ध होता है। आचार्य उमास्वामी ने स्पष्टतया कहा है
'मिथ्यादर्शनाविरतिप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः। सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः'।३०
कर्म के मुख्यतः दो भेद हैं- द्रव्य कर्म और भाव कर्म।' सांसारिक जीव के राग-द्वेष आदि रूप विभाव परिणाम भाव कर्म कहलाते हैं तथा उन विभाव परिणामों से आत्मा के साथ जो कार्मण वर्गणायें चिपक जाती हैं, वे द्रव्य कर्म हैं। इन दोनों में निमित्त-नैमित्तिक रूप द्विमुख सम्बन्ध है। यह सम्बन्ध सन्तति की अपेक्षा से संसारी जीवों के अनादि है, किन्तु कोई विशिष्ट कर्म अनादि नहीं है। इनका सम्बन्ध बीज एवं वृक्ष की तरह या मुर्गी और उसके अण्डे की तरह समझना चाहिए। कर्म के कारण ही संसार में विषमता/विविधता दष्टिगोचर होती है।2.
__ आत्मा और कर्म दोनों अनादि हैं। प्रतिक्षण संसारी जीव नवीन कर्म बांधता रहता है। ऐसा एक भी क्षण नहीं है जब जीव कर्मबन्ध न करता हो। इस दृष्टि से यद्यपि कर्म सादि भी है तथापि कर्मसन्तति का आत्मा के साथ अनादि काल से सम्बन्ध है। एक क्षण भी आत्मा पूर्णतया सभी कर्मों से मुक्त नहीं हुआ है। कनकोपल की तरह आत्मा और कर्म का अनादि सम्बन्ध होने पर भी वह अनन्त नहीं है। अनादि अनन्त ही हो ऐसा सार्वत्रिक नियम नहीं है। स्वर्ण एवं उपल का, दुग्ध एवं घृत का अनादि सम्बन्ध है तथापि पृथक्-पृथक् हो जाने से यह अनन्त नही है। अनादिकालीन कर्मों का अन्त हो सकता है, तप एवं संयम के