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अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016 उत्तर प्रकृतियों का भी परस्पर संक्रमण नहीं होता है। तत्त्वार्थवार्तिक में कहा गया है
'अनुभवो द्विधा प्रवर्तते स्वमुखेन परमुखेन च । सर्वासां मूलप्रकृतीनां स्वमुखेनैवानुभवः। उत्तरप्रकृतीनां तुल्यजातीयानां परमुखेनापि भवति। आयुदर्शनचारित्रमोहवानाम्। न हि नरकायुमुखेन तिर्यगायुर्मनुष्यायुर्वा विपच्यते। नापि दर्शनमोहश्चारित्रमोहमुखेन चारित्रमोहो वा दर्शनमोहमुखेन।'47
कर्मों की उत्तरप्रकृतियों के संक्रमण में योगसाधना की महनीय भूमिका है। इसी प्रकार पूर्वबद्ध कर्म की स्थिति एवं अनुभाग के उत्कर्षण एवं अपकर्षण में तथा नियत समय से पूर्व कर्मों की उदीरणा में भी योगसाधना या ध्यानसाधना सक्षम है। कर्मों के विद्यमान रहते हुए उन्हें उदय में आने के लिए अक्षम बना देना उपशमन है। कर्मों के उपशमन में भी योगसाधना कारगर हो सकती है। अतः कहा जा सकता है कि कर्मों की उत्कर्षण, अपकर्षण, संक्रमण, उदीरणा एवं उपशमन अवस्थाओं से योगसाधना का निकट का सम्बन्ध है। ध्यानसाधना (योगसाधना) अर्थात् ध्यान की परिपूर्णता ही कर्ममक्ति का साक्षात कारण है। संदर्भ : 1. पातञ्जल योगसूत्र, 1.2 2. श्रीमद्भगवद्गीता, 2.48 3. संयुत्तनिकाय शैकोद्देश टीका (जैन परम्परा में ध्यान का स्वरूप पृ. 36 से उद्धृत) 4. धवला, 1.1.1
5. तत्त्वार्थवार्तिक, 7.13 6. तत्त्वार्थसूत्र, 6.1
7. पञ्चसंग्रह, गाथा 88 8. तत्त्वार्थवार्तिक 6.1
9. तत्त्वानुशासन, 60-61 10.तत्त्वानुशासन की टीका में से उद्धृत 11. स्थानांगसूत्र 4.1, समवायांगसूत्र 4, उत्तराध्ययनसूत्र 30-35 आदि। 12. समाधिसार, 133-134
13. समाधिसार, 135-140 14. धवला पुस्तक 13 पृ. 70
15. तत्त्वार्थसूत्र, 9. 28-29 16. ध्यानशतक, 5
17. ज्ञानार्णव 25.21 18. तत्त्वानुशासन 34 19. द्रष्टव्य- भावसंग्रह (देवसेन), योगसार (योगीन्दुदेव) 20. ज्ञानार्णव, 4.6
21. अशोक के फूल, पृ. 67 22. वही, पृ. 67 से उद्धृत
23. अभिधर्मकोश परिच्छेद 4 24. ब्रह्मसूत्र, शांकर भाष्य 2.1.14