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अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016 द्वारा नये कर्मों का बन्धन रुक जाता है तथा आत्मा मुक्त बन जाता है। कहा भी गया है कि
'खवित्ता पुव्वकम्माइं, संजमेण तवेण य।
सव्वदुक्खपहीणट्ठा, पक्कमन्ति महेसिणो॥३४ विपाक (कर्मफल) की दृष्टि से कर्म दो प्रकार हैं- शुभ एवं अशुभ या पुण्य एवं पाप अथवा कुशल एवं अकुशल। इन उभयविध कर्मों का उल्लेख वैदिक, बौद्ध और जैन” तीनों परम्पराओं में हुआ है।
भारतीय कर्मसिद्धान्त कहता है कि कृतकर्म का फल अवश्य ही भोगना पड़ता है- 'अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम्।'३८ यह हो सकता है जीव ने जो अच्छा या बुरा कर्म किया है, उसका फल इसी जन्म में न मिलकर जन्म-जन्मान्तर में प्राप्त हो।
महात्मा बुद्ध धम्मपद में कहते हैं'न अन्तलिक्खे न समुद्दमझे, न पव्वतानं विवरं पविस्स। न विज्जते सो जगतिप्पदेसो, यत्थट्ठितो मुञ्चेय्य पापकम्मा॥३९
चाहे अन्तरिक्ष में चले जाओ, समुद्र में घुस जाओ या पर्वत की गुफाओं में प्रवेश कर जाओ, किन्तु पृथिवी पर ऐसा कोई भी स्थान नहीं है, जहाँ पाप कर्म जीव का साथ छोड़ दे।
वैदिक मतानुयायी सिहलन मिश्र ने यही बात अपने शान्तिशतक काव्य में कही है
'आकाशमुत्पततु गच्छतु वा दिगन्तमम्भोनिधिं विशतु तिष्ठतु वा यथेष्टम्।
जन्मान्तरार्जितशुभाशुभकृन्नराणां
छायेव न त्यजति कर्म फलानुबन्धि॥० आकाश में उड़ जाओ अथवा दिशाओं के छोर तक चले जाओ, समुद्र में घुस जाओ अथवा इच्छानुसार कहीं भी रहो। जन्म-जन्मान्तर में जो शुभ या अशुभ कर्म किये हैं, उनके फल तो छाया के समान कभी भी साथ नहीं छोड़ते हैं।
जैन धर्म की भी यह दृढ़ मान्यता है कि जीव ने जो कर्म बांधा है, उसे इस जन्म में या आगामी जन्मों में भोगना ही पड़ता है। भगवतीसूत्र