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अनेकान्त 69/2 अप्रैल-जून, 2016
छः अध्याय भक्तियोग प्रधान तथा अन्तिम छ : अध्याय ज्ञानयोगप्रधान हैं। अन्य अनेक योग प्रधान ग्रन्थों की रचना वैदिक परम्परा में हुई है, जो योग की महत्ता को सिद्ध करते हैं।
बौद्ध परम्परा में भी योग का महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह बात सुप्रसिद्ध है कि महात्मा बुद्ध बुद्धत्व प्राप्ति से पूर्व छः वर्षों तक योगसाधन या ध्यान और समाधि शब्दों का प्रयोग हुआ है, परन्तु क्वचित् इन्हें योग का अंग भी कहा गया है।
'प्रत्याहारस्तथा ध्यानं प्राणायामोऽय धारणा । अनुस्मृतिः समाधिश्च षडंगो योग उच्यते ॥
प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, अनुस्मृति और समाधि ये छः योग के अंग कहे गये हैं।
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जैन परम्परा में योग, ध्यान एवं समाधि को पर्यायवाची माना गया है तो कहीं-कहीं परस्पर अंगाङ्गिभाव के रूप में भी उल्लेख हुआ है। जैन वाङ्मय के ये उल्लेख वैदिक एवं बौद्ध साहित्य के उल्लेखों से प्रायः समानता रखते हैं। धवला में 'युज्यते इति योग : " कहकर सम्बन्ध को योग कहा तो तत्त्वार्थवार्तिककार 'योजनं योगः सम्बन्ध इति यावत् ”, वहाँ संवर एवं निर्जरा के प्रसंग में स्पष्टतया समाधि या सम्प्रणिधान ( मन-वचन-काय के निरोध) को योग कहा गया है- 'योगः समाधिः सम्प्रणिधानमित्यर्थः । प्राकृत पञ्चसंग्रह में जीव के वीर्यपरिणाम (सामर्थ्यविशेष) या प्रणियोग (प्रदेशपरिस्पन्दन) को योग कहा है।
'मनसा वाचा काएण वापि जुत्तस्स विरियपरिणामो । जीवस्सप्पणिजोगो जोगो त्ति जिणेहि णिद्दिट्ठो ॥ ७ अर्थात् मन, वचन एवं काय से युक्त जीव का जो सामर्थ्य परिणमन (शक्तिविशेष) अथवा प्रणियोग (प्रदेश परिस्पदन) है, उसे जिनेन्द्र भगवन्तों ने योग कहा है। आचार्य अकलंकदेव योग, समाधि एवं ध्यान को एकार्थक मानते हुए लिखते हैं- 'युजेः समाधिवचनस्य योगः समाधिः ध्यानमित्यनर्थान्तरम् ।
तत्त्वानुशासन में मुनि रामसेन लिखते हैं