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अनेकान्त 69/2, अप्रैल-जून, 2016 अधिक वेतन पाने वाले ने अपनी आवश्यकताओं को अधिक बढ़ा लिया था। सुख का समीकरण है = इच्छाओं की सम्पूर्ति (Fulfil of needs)
इच्छाओं की संख्या (No. of needs) (३) दुःख-सुख का विवेक- बढ़ी हुई आवश्यकताओं के पूरा न होने में ही दुख नहीं है, बल्कि उनको पूरा करने में भी नाना प्रकार के कष्ट उठाने पड़ते हैं। सामग्री जुटाने की चिन्ता, उसके रक्षा की चिन्ता, रक्षित सामग्री के खो जाने या नष्ट हो जाने का भय, उसके जुदा होने पर परेशानी या बेचैनी, इस प्रकार इष्ट के वियोग के साथ अनिष्ट का संयोग हो जाने पर चित्त की व्याकुलता। इस प्रकार इच्छा और तृष्णा ये सब दुख की पर्याय है। सुख का लक्षण ही निराकुलता है, जो बेचैनी, परेशानी, आकुलता, तृष्णा आदि से रहित होता है। यदि दु:ख की पर्यायें और हालतें बनी हुई हों तो बाहर का ठाटबाट और वैभव के होते हुए भी सुखी नहीं हो सकता।
उदाहरण लें- एक व्यक्ति को 105° का बुखार है, उसे बेचैनी है। भले ही मखमल के बिछे गद्दे पर लिटा दें, पलंग भी सोने-चांदी से मढ़ा हो, तो क्या उसके दु:ख में कोई कमी हो सकती है? एक दूसरे आदमी के पास खूब धन-दौलत है, जमीन-जायदाद है, नौकर-चाकर, आज्ञाकारी स्त्री व बच्चे आदि सब कुछ विभूति मौजूद है, परन्तु उसके शरीर में एक असाध्य रोग हो गया है। जो उपचार करने पर भी दूर नहीं हो सका। उसको किसी भी वस्तु में आनंद मालूम नहीं होता और न किसी के बोल सुहाते हैं। एक अलग पलंग पर पड़ा रहता है। मूंग-दाल का पानी भी मुश्किल से हजम होता है। दूसरों को नाना व्यंजन खाते देखकर बस झुरता रहता है और अपने भाग्य को कोसता है।
एक तीसरा व्यक्ति है- सभी सुख-सामग्री है, शारीरिक स्वास्थ्य भी अच्छा है, परन्तु उसके पीछे फौजदारी का एक जबरदस्त मुकदमा लगा हुआ है। उसकी वजह से वह तनाव में, चिन्ता में डूबा रहता है। स्त्री बड़ी विनय के साथ कह रही है- थोड़ा भोजन करके बाहर निकलिये, परन्तु वह बेरुखी व झुंझलाहट के साथ उत्तर देता है- 'तुझे भोजन की पड़ी है, यहाँ जान को बन रही है। रेल का वक्त हो गया, आज मुकदमे की पेशी