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अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 से ढंका हुआ था।
सिकन्दर भूख से व्याकुल हो रहा था। उसने सारी औपचारिकताएँ दर किनार कर थाली का कपड़ा हटाया ताकि भोजन पा सके। लेकिन यह क्या? थाली में कुछ स्वर्ण मुद्राएँ रखीं थीं। सिकन्दर की भौंहे चढ़ गयी वह चिल्लाकर बोला- 'माँ! मुझे भूख लगी है, और तुम मेरा उपहास कर रही हो। भोजन के स्थान पर ये स्वर्ण मुद्राएँ?'
वृद्धा बोली- 'सम्राट! मेरी क्या औकात कि मैं महान सिकन्दर का उपहास करूँ?' परन्तु हाँ इतना जानती हूँ कि सिकन्दर को यदि रोटी की भूख होती हो वह उसके देश में आसानी से मिल जाती। सिकन्दर को रोटी की नहीं, सोने की भूख है, जिसकी खोज में वह देश-देश जाकर वहाँ आक्रमण करता है और सेना शक्ति तथा शस्त्र के बल पर सोना इकट्ठा कर रहा है। वृद्धा बोली- 'सिकन्दर को यदि केवल रोटी की भूख होती तो वह दूसरे की रोटी नहीं छीनता।
सिकन्दर की अन्तस चेतना के तार, वृद्धा के इन अभय-स्वरों से झंकृत हो उठे। वह अपलक नारी की निडरता, आत्म-विश्वास और उसके अन्दर की छिपी शौर्यता को ठगा सा देखता रह गया। उसका ओढ़ा हुआ अहंकार अपनी ही आँखों के सामने, पिघलता हुआ दिख रहा था। सिकन्दर बोला- 'माँ! मैं तुम्हें प्रणाम करता हूँ। तुम ठीक कह रही है।'
जब मझे माँ बोला है, तो बेटे को भोजन कराकर ही यहाँ से बिदा करूँगी। उसने कुछ प्रतिक्षा करने को कहा- और बड़े ही आत्मीय वात्सल्य से सिकन्दर को खाना खिलाया। कहते हैं, सिकन्दर उस नगर को बिना कुछ हानि पहुँचाए और लूटपाट किये आगे निकल गया तथा नगर के बाहर एक शिलालेख लिखवा गया कि इस नगर की एक महान नारी ने अज्ञानी सिकन्दर को एक बहुत बड़ी शिक्षा दी है।
वह शिक्षा- जीवन की वास्तविकता थी कि तृष्णा की भूख कभी भी विश्व की सम्पूर्ण सम्पदा से भी नहीं भरी जा सकती है। व्यक्ति बाहर जितना संग्रह करता है, वह उसके भीतर की निर्धनता का द्योतक है। वस्तुतः बाहर का विस्तार, उसकी आन्तरिक रिक्तता का सूचक है।
("सौ बोधकथाएँ"- से साभार) मेफेयर अपार्टमेंट, मोहाली, (पंजाब )