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अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016
आचार्यश्री की विभज्यवाद अपरनाम स्यादवाद इक्यावन श्लोकों की एक लघु पद्यात्मक रचना है जिसका प्रकाशन 'नेशनल नॉन वॉयलेंस यूनिटी फाउण्डेशन ट्रस्ट', उज्जैन ने किया है। इसकी प्रस्तावना डॉ. श्रीमती कृष्णा जैन ने तथा भूमिका विदुषी सविता जैन ने लिखी है। इसके प्रारम्भ में पं. जवाहरलाल जी भिण्डरवालों का उच्चस्तरीय चिन्तनात्मक लेख है तथा आचार्य श्री एवं आपके गुरू परमपूज्य आचार्य श्री सन्मतिसागर जी का शुभाशीष वचन भी इसमें निबद्ध है।
ग्रन्थ प्रारम्भ में वसंततिलका छन्दोबद्ध मंगलाचरण के माध्यम से आदिप्रभु तीर्थकर आदिनाथ भगवान् का स्मरण किया है। प्रथम श्लोक में ही भोगभूमि की आयु का उपभोग करने के कारण धर्मरहित जीवों को मुक्ति मार्ग में नियोजित करने वाले ऋषभदेव भगवान् को नमस्कार किया गया है। इस श्लोक में सिद्धान्त का जो हार्द आचार्यश्री ने विद्वानों के समक्ष प्रस्तुत किया है वह यह है कि चतुर्थकाल की सार्थकता तीर्थकर के होने से है क्योंकि बिना कर्म के मुक्ति का मार्ग असम्भव है। यद्यपि तृतीयकाल में जन्म लेने वाला प्राणी चतुर्थकालोत्पन्न प्राणी की अपेक्षा ज्यादा पुण्य का उपभोग कर रहा है और सिद्धान्ततया नियम से अगले भव में स्वर्ग में उत्पन्न होगा तथापि वह पुण्य मोक्ष में साधक नहीं अपितु बाध क है जिसका परिष्कार राजा ऋषभदेव जो कि तत्कालीन नवीन व्यवस्थापक थे उन्होंने सामान्य जनसमह के लिये दिया था।
__ ग्रन्थ में अरहन्त देव का स्तवन करने के उपरान्त क्रमशः शेष चार परमेष्ठियों को नमन किया है। तत्पश्चात् जिनमुखोद्भूत सरस्वती देवी को नमस्कार किया है। आराध्य की स्तुति के उपरान्त उदिष्ट विषय का प्रतिपादन ग्रंथ के सातवें श्लोक में है। ग्रन्थ के नामकरण की सार्थकता हेतु विभज्यवाद की परिभाषा रूचिकर शब्दों में प्रस्तुत कर कहते हैं कि स्याद्वाद का द्वितीय नाम विभज्यवाद है। जिस दृष्टि से जिस प्रश्न का उत्तर दिया जा सकता है उसी दृष्टि से उत्तर देना चाहिए इसे ही सर्वज्ञ भगवान् ने स्याद्वाद कहा है। इसी का समर्थन अगले ही श्लोक में है, जिसमें कहते है। कि 'किसी एक ही प्रश्न के यथावकाश दृष्टिभेद से अनेक उत्तर हो सकते हैं। इसको सदा अपेक्षा से नित्य मानना चाहिए, यह सदुत्तर ही