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अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 जीवरक्षा का बिगुल बजाया है। वस्तुतः 'जिनेन्द्र' ने प्रत्येक प्राणी का समान अस्तित्व उद्घोषित किया है और प्रसिद्ध भी है कि "काकेभ्यो दधि रक्ष्यताम्" कौए से दही की रक्षा करना चाहिए। कौआ यहाँ उपलक्षण है अर्थात् कौए के अतिरिक्त भी जो-जो दही का अपघातक है उन सबसे भी दही को बचाना चाहिए। इसी उक्ति का चरितार्थ रूप आचार्यश्री कृत गोरक्षा स्तोत्र में दृष्टिगोचर होता है। इस स्तोत्र में भी गोशब्द उपलक्षण है क्योंकि अन्य प्राणी मात्र के प्रति भी मनुष्य की करुणा दृष्टि होनी चाहिए, यही आचार्य श्री का भाव है। इस रचना में महालेखिका महाश्वेतादेवी की गाय की मार्मिक कहानी का भाव दृष्टिगोचर होता है जिसमें गाय की पीड़ा का साक्षात् अनुभव लेखिका ने प्ररूपित किया है।
काल की अपेक्षा यह रचना अत्यन्त प्रासंगिक है। वर्तमान में हिंसा का जो ताण्डव बूचड़खानों के माध्यम से चल रहा है उसकी गति अवरूद्ध करने के लिये सभी सन्त-महात्माओं का एकजुट होना परमावश्यक है। इसी कड़ी में गौ-रक्षा स्तोत्र आचार्य श्री का एक अभिनव प्रयास है। स्तोत्र रचना तो भक्ति तथा करुणा का प्रतिफल है। जो आचार्य कुन्दकुन्द से प्रारम्भ होकर वर्तमान समय में भी प्रचलित है।
जब आचार्यश्री की स्तोत्र-विधा से हटकर दर्शन-विधा का अध्ययन करते हैं तो इसमें पूर्ववर्ती दार्शनिक आचार्यों के पुट का आस्वाद होता है। पूर्व परम्परा में आचार्य अकलंक स्वामीकृत स्वरूप-संबोधन एक उच्चस्तरीय रचना है। पच्चीस कारिकाओं की यह लघुकृति अनेकान्तवाद का हार्द समेटे हुए है। ठीक उसी प्रकार आचार्यश्री की रचना 'विभज्यवाद' अपरनाम स्याद्वाद एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति है। स्वरूप सम्बोधन में आचार्य अकलंक स्वामी ने सत्-असत्, एक-अनेक, अस्ति-नास्ति, तत्-अतत् इत्यादि परस्पर विरूद्ध प्रतीत होती विचारधाराओं में जिस प्रकार समन्वय स्थापित किया है उसी प्रकार आचार्यश्री ने विभज्यवाद में अविरोधी तत्त्वों की अनेकान्तदृष्टि से सार्थक समीक्षा प्रस्तुत की है और यदि इसे प्रकारान्तर से स्वरूप-संबोधन का प्रतिरूप माना जाय तो कोई आश्चर्य नहीं है।