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अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 6. लोभी धनादि के लोभ वश दूसरों की देखा-देखी धार्मिक कार्यों में भी प्रवर्त होता है किन्तु उसका परिणाम मलिन होने से उसे लाभ के वजह हानि ही होती है। जैसे- देखा-देखी, दान देना, देखा-देखी अन्य धार्मिक क्रियाएँ करना। 7. लोभ चाहे किसी चीज का क्यों न हो बुराई ही है। धन, संपत्ति, स्त्री, जमीन आदि का लोभ तो बुरा है ही इसे सारी दुनिया कहती है किन्तु शास्त्र में तो पुण्य के लोभियों की भी निंदा की है क्योंकि पुण्य का लोभी अन्य भव में अच्छे धन वैभव की प्राप्ति, निरोग शरीर, दीर्घ आयु चाहता है। जो जीवन का अंतिम लक्ष्य नहीं, जीवन का अंतिम लक्ष्य तो समस्त प्रकार की कषायों की निवृत्ति का मार्ग मोक्ष है।
अतः लोभ कषाय सर्वथा त्यागने योग्य है जो हमारे मानवीय मूल्यों के अंतर्गत है। इस संदर्भ में भगवती आराधना के श्लोक-1436 में कहा गया है कि पुण्य रहित मनुष्य को धन मिलता नहीं और लोभ न करने पर भी पुण्यवान के धन की प्राप्ति होती है। आगे भगवती आराधना के सूत्र 1437 व 1438 में कहा कि अनंतबार धन की प्राप्ति हई है अतः इस धन के बारे में सोचना भी व्यर्थ ही है।
इस लोक और परलोक में कषाय दु:ख ही देने वाली है गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा 288 में कहा है कि क्रोध, मान, माया, लोभ के कारण क्रमश: नरक, मनुष्य, देवगति की प्राप्ति होती है।
इस प्रकार मानवीय मूल्यों के अंतर्गत संयम, तप, स्वाध्याय, चिंतन तभी सार्थक है जब हम इन कषायों से मुक्त हो जायेंगे। अतः जिस प्रयोजन की सिद्धि हो तो मेरा यह दु:ख दूर हो और मुझे सुख हो ऐसा विचार कर उस प्रयोजन की सिद्धि होने के अर्थ उपाय करना ही श्रेष्ठ है। इस प्रकार के विचार हमारे अंदर में होने पर ही मानवीय मूल्यों को अपने जीवन में उतार सकेगें।
- मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय,
उदयपुर (राज.)