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अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 उस भाव की रक्षा करना स्याद्वाद में ही सम्भव है। इसी तथ्य को उजागर कर आचार्य योगीन्द्रसागरजी कहते हैं
एकान्तवादे ननु चैक दृष्टः,समर्थनं केवलमेवमत्र। कदापि सामान्य-विशेषभावे, कदापि सदसद् विषये तथैव॥१२॥
(विभज्यवाद) सूक्ष्मता से विचार करें तो 'स्यात्' विहीन जो ऐकान्तिक दृष्टि है उसको हठवाद भी कह सकते हैं क्योंकि जहाँ मात्र 'ही' को स्थान हो तथा अन्य का निषेध हो वहाँ प्रत्यक्ष रूप से अन्य की वाचनिक हिंसा होती है। अतः परमत का आदर स्याद्वाद में निहित है।
इसके अतिरिक्त भी यदि अन्य पक्षों को देखें तो न्याय-दर्शन की विधा पर आधारित ग्रन्थ-परम्परा, जिनका सम्बन्ध जैनन्याय से है, उनमें पूर्व पक्ष का विधिवत् उल्लेख करके जब उत्तरपक्ष दिया गया है तो वहाँ जैनाचार्य स्वयं कहते हैं आपके कथन से हमें कोई विद्वेष नहीं है क्योंकि यदि आपके कहने का आशय यह है तो इस आधार पर तो हम भी इसे सहज ही स्वीकारते हैं' किन्तु यदि आप इसके अतिरिक्त किसी अन्य आशय से कथन का प्रस्तुतीकरण कर रहे हैं तो इस पर आपत्ति है। अतः वे (जैनाचार्य) परमतावलम्बी को भी प्रकारान्तर से यथार्थ उत्तर का मार्ग दर्शाते हैं। अतः यह स्याद्वाद की ही कला है जो अन्य चिन्तकों को भी यथोचित मार्ग दर्शाकर उस मार्ग में अवस्थित करते हैं और यही सकारात्मक सोच है।
यह निश्चित तौर पर आश्चर्य का विषय है कि अत्यन्त सामान्य दृष्टिकोण (स्याद्वाद का दृष्टिकोण) को नित नवीन दर्शनों का सृजन करने वाले न समझ सकें। उन्हीं अबूझ तथ्यों को आचार्य श्री ने इस कृति में समाहित किया है।
दर्शन में कार्य-कारण विचार अत्यधिक सामान्य पक्ष है अर्थात् बिना इसके दर्शन तथा न्याय का कथन अपूर्ण है। परन्तु इस बिन्दु पर भी वैचारिक वैमत्य हैं और जो वैमत्य हैं वह भी प्रायः त्रुटिपूर्ण हैं। दर्शन में जहाँ कारण के बिना कार्योत्पत्ति का अस्तित्व मानते हैं उस पर आचार्यश्री शंका व्यक्त करते हैं; अर्थात् जो कारण की अनुपस्थिति में भी कार्य की