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अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016
आचार्य योगीन्द्रसागरकृत कालजयी कृति “विभज्यवाद'
__ - डॉ. आनन्द कुमार जैन
जैनदर्शन की अविरल प्रवहमान धारा में द्वितीय शताब्दी के आचार्य समन्तभद्र तथा सातवीं शताब्दी के आचार्य अकलंक स्वामी ने दर्शन की विधा में न्याय का पुट प्रविष्ट कर तार्किक दृष्टि से आहत मत का मण्डन किया है। पश्चात्वर्ती आचार्य विद्यानन्दस्वामी, आचार्य प्रभाचन्द्र इत्यादि भी इसी कड़ी के यतिगण हैं। उपर्युक्त चिन्तकों ने स्वरचित रचनाओं से तत्कालीन प्रवहमान रूढ़ परम्पराओं को युक्तिसंगत रीति से खण्डित किया एवं अनेकान्तवाद से विरोध प्रतीत हो रहे जिनमुखोद्भूत तथ्यों में समन्वय दर्शाकर आर्हत दर्शन की ध्वजा को उच्चायमान रखा। इसके उपरान्त भी अपने-अपने काल में जैनाचार्यों ने इस परम्परा का निर्वाह किया।
इक्कीसवीं शताब्दी के अध्यात्म धुरन्धर, आशुकवि प्रखरचिन्तक, योग-साधक, आचार्य योगीन्द्रसागरजी महाराजश्री ने व्यस्ततम मुनिचर्या में शताधिक कृतियों की रचना करके जिनधर्म की पताका को स्थिरता प्रदान की है। इनमें सर्वज्ञ सहस्रनाम, निर्वाण काण्ड, योगीन्द्रगम्य स्तोत्र, नमस्काराष्टक, श्री ऋषभदेव भक्ति-भक्तामर, पंच बालयति स्तोत्र चतुर्विशति स्तवन, इन्द्रभूति गौतम गणधर स्तोत्र, श्रीपार्श्वनाथाष्टक, वागीश्वरी स्तोत्र, निजात्म स्तोत्र, मुक्तिवल्लभ स्तोत्र, गौरक्षा स्तोत्र इत्यादि स्तुति पाठ हैं। ये रचनायें हिन्दी तथा संस्कृत में पद्यात्मक रूप में निबद्ध हैं।
आचार्यश्री संस्कृत हिन्दी, प्राकृत, अपभ्रंश के मर्मज्ञ विद्वान् हैं। आपकी स्तोत्र रचनाओं के अध्ययन करने पर आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी तथा आचार्य पूज्यपाद का सहज ही दर्शन हो जाता है। स्तोत्र में मनुष्यमात्र के कल्याण के साथ-साथ तिर्यक् का भी महिमामण्डन कर प्रकारान्तर से