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अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 विश्वविद्यालयों में प्राकृत, अपभ्रंश एवं जैनविद्या अध्ययन के लिए स्वतंत्र या संयुक्त विभाग है, इन शोध-संस्थानों में शोध कार्य कराये जाते हैं। इसी पुस्तक का परिवर्धित तृतीय संस्करण 2004 में पुनः निकाला गया। जिसमें कुल 1094 देशी (भारत), 131 विदेशी शोध प्रबंधों का परिचय है तथा 101 योग्य विषयों की सूची इसमें दी गई है जहाँ प्राकृत, अपभ्रंश एवं जैन विद्या पर शोध कार्य हुआ है। स्वतंत्र रूप से भी स्व संस्था जैन जैन विश्व भारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय), लाडनूं, राजस्थान के शोध कार्यों का विवरण डॉ. समणी आगमप्रज्ञा एवं डॉ. वन्दना मेहता द्वारा 2009 में 'Jain Vishva Bharati and Jain Vishva Bharati Institute Research Work' के अन्तर्गत दिया गया। जिसमें इस संस्थान के प्रारंभ से लेकर 2009 तक के शोध कार्यों का समग्र विवरण दिया गया है।
प्राकृत एवं अपभ्रंश के प्रबन्धों एवं उच्चस्तरीय ग्रन्थों को प्रकाशित करने वाली संस्थायें बहुत कम है। इनमें भारतीय ज्ञानीठ, नई दिल्ली, मोतीलाल बनारसीदास, दिल्ली, जैन विश्व भारतीय संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय), लाडनूं, राजस्थान, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी, इंस्टीट्यूट ऑफ प्राकृत जैनोलोजी एण्ड अहिंसा, वैशाली (बिहार), एल. डी. इंस्टीट्यूट ऑफ इण्डोलोजी, अहमदाबाद (गुजरात), बी. एल. इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी, दिल्ली, श्री कुन्दकुन्द भारती प्राकृत संस्थान, नई दिल्ली, शारदाबेन इन्स्टीट्यूट अहमदाबाद, आगम,
अहिंसा-समता एवं प्राकृत शोध संस्थान, उदयपुर राष्ट्रीय प्राकृत-अध्ययन एवं शोध संस्थान, श्रवणवेलगोला, आदि के नाम लिए जा सकते हैं।
___प्राकृत, अपभ्रंश एवं जैनविद्या संबन्धी शोध कार्य के विकास में निम्नलिखित मुख्य पत्रिकाएं निरन्तर कार्यशील हैं:
श्रमण (वाराणसी), तुलसीप्रज्ञा (लाडनूं), जैन जर्नल (अंग्रेजी-कलकत्ता), प्राकृतविद्या (दिल्ली), अनेकान्त (दिल्ली), अर्ह त्वचन (इन्दौर), सम्प्रज्ञा (वाराणसी), जैनविद्या (श्रीमहावीरजी-राजस्थान), शोधादर्श (लखनऊ), तीर्थकर (इन्दौर), जिनवाणी (जयपुर), सम्बोधि (अहमदाबाद), जिनमंजरी (अंग्रेजी-कनाडा), प्राचीन तीर्थ जीर्णोद्धार (लखनऊ) आदि।