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अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 24. राष्ट्रीय प्राकृत अध्ययन एवं संशोधन संस्थान, श्रवणवेलगोला 25. जैन विद्या विभाग, मद्रास विश्वविद्यालय, मद्रास 26. पालि एवं प्राकृत विभाग, विश्व भारती शांति निकेतन विश्वविद्यालय,
पश्चिम कलकत्ता 27. प्राकृत एवं जैन आगम विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय,
बनारस (उ.प्र.) 28. जैन विद्या विभाग, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, बनारस 29. Jain Academy, Satelite, 2A2, Court Chambers, 35, New Marine Lines, Bombay 30. Research foundation for Jainology (Regd.), Sowcarpet, Chennai प्राकृत एवं अपभ्रंश अध्ययन का विकास एवं भविष्य (दिशा)
प्राकृत एवं अपभ्रंश साहित्य लोक साहित्य का एक विशाल भाग है। यह साहित्य वैश्विक संदर्भ में चिंतन और सिद्धान्तों की चर्चा से भरा पड़ा है। इसके द्वारा लोगों को परस्पर निकट आने का मार्ग प्राप्त होता है। आज इनके गहन एवं व्यापक अध्ययन की आवश्यकता है। इन भाषाओं के साहित्य के गहन अध्ययन और अनुसंधान से दिव्य रत्न प्राप्त हो सकते हैं जो मानव जाति को उन्नति की दिशा दिखा सकते हैं। प्राकृत एवं अपभ्रंश साहित्य में कलाओं, हस्तशिल्प, औषधि-विज्ञान, ज्योतिष, भूगोल, धातुविज्ञान, रसायनविज्ञान, पुद्गल विज्ञान, वनस्पति विज्ञान, तत्त्वविज्ञान, तत्त्वचिन्तन, काव्य, चरित्र एवं कथातत्त्व आदि अनेक विषय आधुनिक भौतिक विज्ञान, वनस्पति विज्ञान एवं मनोविज्ञान की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। आचारशास्त्र, जीवविज्ञान, राजनीतिशास्त्र एवं अर्थशास्त्र के क्षेत्र में भी मौलिक चिन्तन को प्रस्तुत करते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि प्राकृत आगम और अपभ्रंश साहित्य का पारम्परिक, दार्शनिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि के साथ-साथ वैज्ञानिक एवं मनौवैज्ञानिक दृष्टि से भी गहन अध्ययन किया जाए। इस दिशा में उत्साहशील अध्येताओं और अनसंधित्सओं को प्रेरणा और सहयोग देना आवश्यक है। वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अहिंसा, समता और अनेकान्त दर्शन जैसे विषयों की अपरिहार्य