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अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 तीर्थंकरों के वचन विषयक गुणों की चर्चा स्तोत्रों में अनेक स्थलों पर की गई है। यथान शीतलाश्चन्दनचन्द्ररश्मयो न गाङ्गमम्भोः न च हारयष्टयः। यथा मुनेस्तेऽनघवाक्यरश्मयः शमाम्बुगर्भाः शिशिरा विपश्चिताम्॥
-स्वयम्भूस्तोत्र १०/१ अर्थात् भगवान् के वचन रूपी किरणों से जो शीतलता प्राप्त होती है, वैसी शीतलता चन्दन से, चन्द्रमा की किरणों से, गंगा के जल से और मोतियों की मालाओं से प्राप्त नहीं हो सकती है।
___परम आनन्दकारी, सुखकारी अमृतवत् प्रभु की वाणी अजर-अमर पद की दात्री है। यथास्थाने गंभीरहृदयोदधि सम्भवाया: पीयूषतां तव गिरः समुदीरयन्ति। पीत्वा यतः परमसम्मदसङ्गभाजो,भव्या व्रजन्तितरसाप्यजरामरत्वम्।
-कल्याणमन्दिरस्तोत्र २१ 'विषापहारस्तोत्र' में भगवान् के वागातिशय को प्रगट करते हुए कहा गया है कि उनका वचन नानार्थक भी है एवं एकार्थक भी है, वह नाना लोगों के लिए एक ही अर्थ को सम्प्रेषित करता है, वह हितकारी भी है जिसे सुनकर व्यक्ति निर्दोषता को प्राप्त होता है। यथा
नानार्थमेकार्थमदस्तदुक्तं, हितं वचस्ते निशमय्य वक्तुः। निर्दोषतां के न विभावयन्ति, ज्वरेण, मुक्तः, सुगमः स्वरेण॥
___ -विषापहार स्तोत्र २९ तीर्थकरों के वचनों की महिमा अपार है। इन वचनों को श्रवण कर, उनका रहस्य समझकर स्वर्ग एवं मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है। यही बात व्यक्त करते हुए लिखा है
शिवसुखमजरश्रीसगमं चाभिलस्य स्वमभिनियमयन्ति क्लेशपाशेन केचित् वयमिह तु वचस्ते भूपतेर्भावयन्त स्तदुभयमपि शश्वल्लीलया निर्विशामः॥
- जिनचतुर्विशतिका २१