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अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016
तीर्थङ्कर दिव्यध्वनि का वैशिष्ट्य
-- प्रो. अशोक कुमार जैन महापुराण में गर्भान्वय क्रिया के वर्णन में तीर्थकर भावना का वर्णन है___ "मैं एक साथ तीनों लोकों का उपकार करने में समर्थ बनूँ" इस प्रकार की परम करुणा से अनुरंजित अन्तश्चैतन्य परिणाम प्रतिसमय वर्धमान होने से परोपकार का जब आधिक्य होता है उससे दर्शनविशुद्धि आदि 16 भावनायें होती हैं जो परमपुण्य तीर्थकर नामकर्म के बन्ध में कारण होती हैं। ये भावनायें सभी के नहीं होती, इनका होना दुर्लभ है। तीर्थकर प्रकृति का बन्ध करने के पश्चात् केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर बिना इच्छा के भगवान् अर्हन्त की वाणी खिरती है। चूंकि वे वीतराग होते हैं अतः वहाँ विवक्षा-बोलने की इच्छा नहीं होती। कहा भी है
यत्सर्वात्महितं न वर्णसहितं न स्पन्दितौष्ठद्वयं, नो वाजछाकलितं न दोषमलिनं न श्वासरुद्धक्रमम्। शान्तामर्षविषैः समं पशुगणैराकर्णितं कर्णिभिः, तन्नः सर्वविदः प्रणष्टविपदः पायादपूर्व वचः॥
__ -समवशरणस्तोत्र ३० जो समस्त प्राणियों के लिए हितकर है, वर्णसहित नहीं है, जिसके बोलते समय दोनों ओष्ठ नहीं चलते, जो इच्छापूर्वक नहीं है, न दोषों से मलिन है जिनका क्रम श्वास से रुद्ध नहीं होता, जिन वचनों को पारस्परिक वैरभाव त्याग कर प्रशान्त पशु गणों के साथ सभी श्रोता सुनते हैं, समस्त विपत्तियों को नष्ट कर देने वाले सर्वज्ञ देव के अपूर्व वचन हमारी रक्षा करें।आचार्य जिनसेन स्वामी ने महापुराण में लिखा है
दिव्यमहाध्वनिरस्य मुखाब्जान्मघरवानुकृतिर्निरगच्छत्। भव्यमनोगतमोहतमोन नद्युतदेष यथैव तमोऽरिः एकतयोऽपि च सर्वनृभाषाः सोऽन्तरनेष्ट बहूश्च कुमाषाः।