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अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 पूर्व में जैन सिद्धान्त भास्कर (Jain Antiquary) पत्रिका आरा (बिहार) से प्रकाशित होती थी जो जैन इतिहास एवं पुरातत्त्व आदि के क्षेत्र में सर्वोत्तम पत्रिका थी। जरूरत है ऐसी पत्रिकाओं का संपादनप्रकाशन पुनः हो ताकि जैन इतिहास एवं पुरातत्त्व आदि के क्षेत्र में नवीन शोध सन्दर्भ प्राप्त हो सकें। प्राकृत एवं अपभ्रंश अध्ययन को प्रमुख आचार्यों एवं मुनियों का अवदान
__ प्राचीन समय में जैनाचार्य एवं मुनियों ने प्राकृत एवं अपभ्रंश साहित्य को समृद्ध करने और जैनविद्या की समुन्नति में अनुमप योगदान किया है। वर्तमान युग में भी कतिपय आचार्य एवं मुनि इस क्षेत्र में सक्रिय रहे। विगत सदी में जिन जैन सन्तों ने प्राकृत भाषा एवं साहित्य के विकास के कार्य को प्राथमिकता दी उनमें आचार्य राजेन्द्रसूरि, आचार्य आत्मारामजी महाराज (पंजाबी) प्राकृत के ग्रंथ शोधकर्ताओं के लिए आदर्श हैं। प्राकृत एवं जैन विद्या के क्षेत्र में श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के दो महान् आचार्यों-आचार्य श्री मुनि पुण्यविजयजी एवं उनके प्रमुख शिष्य जम्बूविजयजी का अभूतपूर्व योगदान है। वर्तमान में कुछ श्वेताम्बर मूर्तिपूजक आचार्यों द्वारा भी आगमों का संपादन संशोधन आदि का कार्य किया गया है। इन्होंने न केवल प्राकृत के ग्रंथों का संपादन एवं अनुवाद आदि का कार्य किया वरन् ऐसे अनेक ग्रंथ भण्डारों का निर्माण एवं संवर्द्धन करवाया जहाँ जीर्ण-शीर्ण हो रही अनेक पाण्डुलिपियों की सुरक्षा तथा संग्रहण किया गया। अनेक पांडुलिपि ग्रंथ-सूचियों का निर्माण स्वयं इन दो आचार्यों द्वारा किया गया। इन दोनों महान् विभूतियों द्वारा Prakrit Text Society, Ahmedabad and Varanasi, महावीर जैन विद्यालय, मुम्बई, सिंघी जैन सीरीज से कई महत्त्वपूर्ण ग्रंथ प्राकृत आगम एवं जैन विद्या से सम्बन्धित प्रकाशित हुए। इस प्रकार इन आचार्यों द्वारा जिनशासन की अपूर्व सेवा की
गई।
विगत दशक में आचार्य श्री आनन्द ऋषिजी ने प्राकृत की शिक्षा को अपूर्व गति दी। स्वर्गीय आचार्य श्री तुलसी के महान् प्रयत्नों से प्राकृत जैनागमों का संपादन अनुवाद और समीक्षात्मक टिप्पण एवं टीका का