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अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016
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कार्य हुआ। यहां से संपादित अनेक आगम ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं। आचार्य महाप्रज्ञ ने स्वयं प्राकृत भाषा एवं साहित्य में अभूतपूर्व वृद्धि की है। आचार्य तुलसी एवं आचार्य महाप्रज्ञ के सद्प्रयत्नों से प्रथम बार जैन विद्या एवं प्राकृत भाषा एवं साहित्य के उच्च अध्ययन और अनुसंधान हेतु एक विश्वविद्यालय की स्थापना सन् 1991 में हुई। जिसका नाम रखा गया जैन विश्वभारती संस्थान (मान्य विश्वविद्यालय), लाडनूं। यह जैनों का एकमात्र विश्वविद्यालय है जिसे U.G.C. द्वारा मान्यता प्रदान की गई।
दिगम्बर परम्परा में आचार्य विद्यानन्दजी महाराज प्राकृत भाषा के प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित हैं। विश्वधर्म की रूपरेखा, श्रमण संस्कृति, समयसार, पिच्छी कमण्डलु, धर्म-निरपेक्ष नहीं सम्प्रदायनिरपेक्ष, प्रवचनमाला के दर्जनों प्रकाशित खण्ड, मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की संस्कृति, सम्राट सिकन्दर और कल्याणमुनि, सम्राट खारवेल, प्रियदर्शी सम्राट अशोक, शर्वबर्मन और उनका कातन्त्र व्याकरण : ऐतिहासिक परिशीलन, जैसी कृतियाँ इस क्षेत्र में उनके महत्त्वपूर्ण अवदान हैं। सन् 1995 से प्रत्येक ज्येष्ठ शुक्लापंचमी को प्राकृत-भाषा दिवस के रूप में मनाये जाने की योजना उन्हीं की प्रेरणा का सुपरिणाम है।
इसी प्रकार ला. ब. शा. राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली में आचार्य कुन्दकुन्द स्मृति व्याख्यानमाला का वार्षिक आयोजन, प्राकृत विषयक वार्षिक सार्टिफिकेट तथा डिप्लोमा कोर्स के पाठ्यक्रम का प्रारम्भ तथा स्वतन्त्र प्राकृत एवं जैन विद्या विभाग की स्थापना, प्राकृत एवं अपभ्रंश के विविध विषयों पर शोधकार्य कराने हेतु मार्गदर्शन आदि आचार्य विद्यानन्द के ऐतिहासिक योगदान कहे जा सकते हैं, जो प्राकृत भाषा एवं साहित्य के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखे जायेंगे।
प्रमुख रूप से जैनधर्म के प्रसार-प्रचार में संलग्न सन्तशिरोमणि आचार्य विद्यासागरजी महाराज का मुनिसंघ विशाल है। आपके अनेक शिष्य सम्पूर्ण देश में प्राकृत एवं जैनधर्म के विभिन्न विषयों पर ग्रंथों का संपादन एवं अनुवाद कार्य करने की प्रेरणा प्रदान करते हैं। कतिपय ग्रंथों को पुनर्मुद्रण द्वारा भी उपलब्ध कराया गया है।