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अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016 आचार्य कुन्दकुन्द आचरण-शून्य स्थिति का समर्थन नहीं करते हैं। उनका कहना है कि आचरण ज्ञानपूर्वक होना चाहिये। समयसार में कहा गया है कि द्रव्य-प्रतिक्रमण भी उपयोगी है। समयसार के मोक्षाधिकार के अन्त में आचार्य अमृतचन्द्र ने अपनी टीका से यह तथ्य स्पष्ट कर दिया कि अप्रतिक्रमण तो स्वच्छन्दाचार है ही, भावशून्य द्रव्य प्रतिक्रमण भी लाभकारी नहीं है। लेकिन भाव प्रतिक्रमण के साथ द्रव्य प्रतिक्रमण निश्चित ही उपयोगी है। जिस प्रकार प्रतिक्रमण उपयोगी है, उसी प्रकार प्रतिसरण (सम्यक्त्व में प्रवृत्ति),प्रतिहरण (मिथ्यात्व और राग का निवारण), धारणा (स्तुति, जप एवं बाह्य द्रव्यों से चित्त को स्थिर करना), निवृत्ति, निन्दा (स्वयं की साक्षी से स्वयं के दोषों को प्रकट करना), गर्हा (गुरु की साक्षी से स्वयं के दोषों को प्रकट करना), और शुद्धि (प्रायश्चित) भी उपयोगी है। ज्ञानपूर्वक, समझपूर्वक और अकर्तृत्वबुद्धि से प्रतिक्रमण आदि आचार के इन आठ अंगों का पालन करना अमत के समान है, उपयोगी है। स्वच्छन्दाचार का निषेध :
समयसार में कहा गया है कि ज्ञानी या सम्यग्दृष्टि बन जाने के बाद कर्मबंध नहीं होता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि कोई व्यक्ति अपने आपको ज्ञानी और सम्यग्दृष्टि मानते हुए स्वच्छन्द आचरण करे। आचार्य कुन्दकुन्द की भाषा में ज्ञानी वह व्यक्ति है, जिसका चारित्र यथाख्यात हो गया। जिसे केवलज्ञान, केवलदर्शन प्राप्त हो गया, उसके कर्मबंध नहीं होता है, कषायजनित कर्मबंध नहीं होता है। साधना की शुरूआती कक्षाओं में व्यक्ति अपने आपको ज्ञानी मानकर स्वच्छन्द आचरण करता है तो उसका विकास अवरुद्ध हो जाता है। आचार्य कुन्दकुन्द कहते हैं कि आचारांग आदि आगमों में गति को ज्ञान समझा जाना चाहिये, जीव आदि तत्त्वों में रुचि को दर्शन समझा जाना चाहिये तथा छह जीव-समूह (पृथ्वीकाय, जलकाय, वायुकाय, अग्निकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय) के प्रति करुणा को चारित्र समझा जाना चाहिये। इस प्रकार अशुभ से शुभ और शुभ से शुद्ध उपयोग की ओर बढ़ना साधक का लक्ष्य होना चाहिये। जब साधक व्यवहार की सीढ़ियों से निश्चय की ओर बढ़ता है तो उसका व्यवहार छूटता जाता है। तब वह कह सकता है कि मेरा आत्मा