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अनेकान्त 69/1, जनवरी-मार्च, 2016
प्रकार के भयों से मुक्त हो जाता है।” इन भयों में सभी प्रकार के भयों का समावेश हो जाता है। सभी प्रकार के भयों से मुक्त होने का एक मुख्य कारण यह है कि सम्यग्दृष्टि जीव कर्मफल के आकांक्षी नहीं होते हैं, इसलिए वे बिल्कुल निर्भय होते हैं। " आकांक्षा और अपेक्षा ही अनेक दुःखों की कारण बनती है। जिसे आत्मा की अमरता, चैतन्यता और ज्ञायकता पर अखण्ड विश्वास हो जाता है। उसके सारे भय दूर हो जाते हैं। इस प्रकार समयसार में व्यक्ति को पूर्ण रूप से भयमुक्त बनने और बनाने का जीवनोपयोगी सन्देश दिया गया है। भयमुक्त व्यक्ति अपनी सांसारिक जीवन - यात्रा को सुखद बनाने के साथ ही आध्यात्मिक यात्रा को भी सुखद और शीघ्र फलदायी बनाता है।
ज्ञानपूर्वक त्याग :
समयसार में त्याग और प्रत्याख्यान को नवीन अर्थ दिया गया है। कोई व्यक्ति यह कहे कि यह मेरा है, फिर भी मैंने इसका त्याग कर दिया है । कुन्दकुन्दाचार्य कहते हैं कि यह त्याग का यथार्थ स्वरूप नहीं है। 'यह मेरा नहीं है, पर है, पराया है, ऐसा जानकर किया गया त्याग ही वास्तविक त्याग या प्रत्याख्यान है
सव्वे भावा जम्हा पच्चक्खाणं परेत्ति णादूणं । तम्हा पच्चक्खाणं गाणं णियमा मुणेयव्वं ॥"
वास्तविक महत्व ज्ञान का है। ज्ञान का फल त्याग है। ज्ञान ही सम्यग्दर्शन, संयम (चारित्र), सूत्र (शास्त्र), शास्त्रों का वर्गीकरण, धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप, वैराग्य, सन्यास आदि सब कुछ है।" वस्तुतः ज्ञान होने पर ही तत्त्व, आचरण और सिद्धान्तों की वास्तविक समझ होती है। ज्ञान के कारण से ही कर्म में अकर्म की साधना होती है । सूत्रकृतांग सूत्र" में अकर्म की साधना को पण्डित वीर्य या अकर्म-वीर्य कहा गया है। पण्डित - वीर्य या अकर्म वीर्य का आशय है ज्ञानपूर्वक त्याग में पुरुषार्थ करना। ऐसा अकर्म का पुरुषार्थ या त्याग का पुरुषार्थ करने वाला पंडित या प्रज्ञापुरुष कहलाता है।
उत्तराध्ययन सूत्र" में भगवान महावीर से पूछा गया कि प्रत्याख्यान (त्याग) से जीव को क्या लाभ होता है? भगवान फरमाते हैं कि