Book Title: Anandghan ka Rahasyavaad
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 16
________________ १४ आनन्दघन का रहस्यवाद भारतीय विद्वानों के अनुसार रहस्यवाद की परिभाषाएँ इस प्रकार हैं__ डा० महेन्द्रनाथ सरकार रहस्यवाद को तर्कशून्य माध्यम बताते हुए लिखते हैं- "रहस्यवाद सत्य और वास्तविक तथ्य तक पहुंचने का एक ऐसा माध्यम है जिसे निषेधात्मक रूप में, तर्कशून्य कहा जा सकता है।"१ किन्तु डा० राधाकमल मुकर्जी रहस्यवाद को, न केवल किसी एक साधन के रूप में अपितु एक विशिष्ट कला के रूप में भी परिभाषित करते हैं। उनके अनुसार "रहस्यवाद भीतरी समायोजन विषयक वह 'कला' है जिसके द्वारा मनुष्य विश्व का, उसके विभिन्न अंशों की जगह उसके अखण्ड रूप में बोध करता है।"२ रहस्यवाद को मात्र साधन और कला के रूप में हो नहीं, प्रत्युत जीवन पद्धति के रूप में परिभाषित करने वाले विद्वानों में स्व० वासुदेव जगन्नाथ कीर्तिकर एवं डा० राधाकृष्णन् हैं । स्व० वासुदेव कीर्तिकर का कथन है कि-"रहस्यवाद एक आचार प्रधान 'अनुशासन' है जिसका लक्ष्य उस दशा को प्राप्त कर लेने का रहता है जिसे किसी यूरोपीय रहस्यवादी के अनुसार, 'मनुष्य का ईश्वर के साथ मिलने अथवा (जैसा भारतीय योगी कहते हैं) अपने अन्दर रही हुई आत्मानुभूति को उपलब्ध करना या ब्रह्म के साथ एकता का अनुभव करना कहा जाता है........यह तत्त्वतः और मूलभूत रूप में एक वैज्ञानिक 'श्रद्धा' है और सभी तरह से व्यावहारिक भी है। इसी प्रकार डा० राधाकृष्णन् रहस्यवाद के 1. “Mysticism is an approach to Truth and Reality, which can be negatively indicated as non-logical." Mysticism in Bhagvad Gita, p. I Preface (Calcutta. 1944). 2. "Mysticism is the art of inner adjustment by which man apprehends the universe as a whole instead of its particular parts." The Theory and Art of Mysticism (Bombay, 1960), p. XII (Preface). 3. "It (Mysticism) is a moral discipline having for its object the acquisition of a condition in directing, as a European mystic puts it. The union of man with God or (as an Indian Yogin might say) a selfrealization, within oneself, or one's identity with Brahma, the universal self........Mysticism is, in essence, at foundation, a scientific faith and it is entirely practical in its character." Studies in Vedanta, pp. 150-160 (Boinbay, 1924).

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