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प्रज्ञापना - १५/१/४२६
नहीं है । भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहते हैं ? कोई देव भी उन निर्जरापुद्गलों के अन्यत्व यावत् लघुत्व को किंचित् भी नहीं जानता- देखता । हे गौतम! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि छद्मस्थ मनुष्य यावत् नहीं जान-देख पाता, (क्योंकि) हे आयुष्यमन् श्रमण ! वे पुद्गल सूक्ष्म हैं । वे सम्पूर्ण लोक को अवगाहन करके रहते हैं ।
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भगवन् ! क्या नारक उन निर्जरापुद्गलों को जानते-देखते हुए (उनका ) आहार करते हैं अथवा नहीं जानते-देखते और नहीं आहार करते ? गौतम ! नैरयिक उन निर्जरापुद्गलों को जानते नहीं, देखते नहीं किन्तु आहार करते हैं । इसी प्रकार असुरकुमारों से पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों तक कहना । भगवन् ! क्या मनुष्य उन निर्जरापुद्गलों को जानते देखते हैं और आहरण करते हैं ? अथवा नहीं जानते, नहीं देखते और नहीं आहरण करते हैं ? गौतम ! कोई-कोई मनुष्य जानते-देखते हैं और आहरण करते हैं और कोई-कोई मनुष्य नहीं जानते, नहीं देखते और आहरण करते हैं । क्योंकी - मनुष्य दो प्रकार के हैं, यथा-संज्ञीभूत और असंज्ञीभूत जो असंज्ञीभूत हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, आहार करते हैं । संज्ञीभूत दो प्रकार के हैं- उपयोग से युक्त और उपयोग से रहित । जो उपयोगरहित हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, आहार करते हैं । जो उपयोगयुक्त हैं, वे जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं । वाणव्यन्तर और ज्योतिष्क देवों से सम्बन्धित वक्तव्यता नैरयिकों के समान जानना ।
भगवन् ! क्या वैमानिक देव उन निर्जरापुद्गलों को जानते हैं, देखते हैं, आहार करते हैं ? गौतम ! मनुष्यों के समान वैमानिकों की वक्तव्यता समझना । विशेष यह कि वैमानिक दो प्रकार के हैं, मायी- मिथ्यादृष्टि- उपपन्नक और अमायी- सम्यग्दृष्टि - उपपन्नक । जो मायीमिथ्यादृष्टि - उपपन्नक होते हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, (किन्तु) आहार करते हैं । जो अमायी- सम्यग्दृष्टि-उपपन्नक हैं, वे दो प्रकार के हैं, अनन्तरोपपन्नक और परम्परोपपन्नक । जो अनन्तरोपपन्नक हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, आहार करते हैं । जो परम्परोपपन्नक हैं, वे दो प्रकार के हैं, पर्याप्तक और अपर्याप्तक । जो अपर्याप्तक हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, आहार करते हैं । जो पर्याप्तक हैं, वे दो प्रकार के हैं- उपयोगयुक्त और उपयोगरहित । जो उपयोगरहित हैं, वे नहीं जानते, नहीं देखते, (किन्तु ) आहार करते हैं । जो उपयोगयुक्त हैं, वे जानते हैं, देखते हैं और आहार करते हैं ।
[४२७] भगवन् ! दर्पण देखता हुआ मनुष्य क्या दर्पण को देखता है ? अपने आपको देखता है ? अथवा ( अपने ) प्रतिबिम्ब को देखता है ? गौतम ! ( वह) दर्पण को देखता है, अपने शरीर को नहीं देखता, किन्तु प्रतिबिम्ब देखता है । इसी प्रकार असि, मणि, उदपान, तेल, फाणित और वसा के विषय में समझना ।
[४२८] भगवन् ! कम्बलरूप शाटक आवेष्टित परिवेष्टित किया हुआ जितने अवकाशान्तर को स्पर्श करके रहता है, (वह) फैलाया हुआ भी क्या उतने ही अवकाशान्तर को स्पर्श करके रहता है ? हाँ, गौतम ! रहता है । भगवन् ! स्थूणा ऊपर उठी हुई जितने क्षेत्र को अवगाहन करके रहती है, क्या तिरछी लम्बी की हुई भी वह उतने ही क्षेत्र को अवगाहन करके रहती है ? हाँ, गौतम ! रहती है ।
भगवन् ! आकाशथिग्गल अर्थात् लोक किस से स्पृष्ट है ?, कितने कार्यों से स्पृष्ट है ? इत्यादि प्रो - गौतम ! लोक धर्मास्तिकाय से स्पृष्ट है, धर्मास्तिकाय के देश से स्पृष्ट नहीं है,