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प्रज्ञापना-३६/-/६२१
१४५ सिद्ध, बुद्ध, मुक्त और परिनिर्वृत्त हो जाते हैं तथा सर्वदुःखों का अन्त कर देते हैं ।
वे सिद्ध वहाँ अशरीरी सघनआत्मप्रदेशों वाले दर्शन और ज्ञान में उपयुक्त, कृतार्थ, नीरज, निष्कम्प, अज्ञानतिमिर से रहित और पूर्ण शुद्ध होते हैं तथा शाश्वत भविष्यकाल में रहते हैं । भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं ? गौतम ! जैसे अग्नि में जले हुए बीजों से फिर अंकुर की उत्पत्ति नहीं होती, इसी प्रकार सिद्धों के भी कर्मबीजों के जल जाने पर पुनः जन्म से उत्पत्ति नहीं होती ।
[६२२] सिद्ध भगवान् सब दुःखों से पार हो चुके हैं, वे जन्म, जरा, मृत्यु और बन्धन से विमुक्त हो चुके हैं । सुख को प्राप्त अत्यन्त सुखी वे सिद्ध शाश्वत और बाधारहित होकर रहते हैं ।
पद-३६-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण
१५ प्रज्ञापना-उपांगसूत्र-४-समाप्त