Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 08
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 239
________________ आगमसूत्र - हिन्दी अनुवाद २३८ ऐसे मूल्यवान् वासगृह में प्रवेश करता है, वहां उत्तमोत्तम धूप- सुगंध मघमघायमान हो, शय्या भी कोमल और दोनो तरफ से उन्नत हो इत्यादि, अपनी सुन्दर पत्नी के साथ श्रृंगार आदि से युक्त होकर हास्य - विलास - चेष्टाआलाप संलाप-विलास इत्यादि सहित अनुरक्त होकर, अविरत मनोनुकूल होकर, अन्यत्र कहीं पर मन न लगाते हुए, केवल इष्ट शब्दादि पंचविध ऐसे मनुष्य सम्बन्धी कामभोगो का अनुभव करता हुआ विचरता है, उस समय जो सुखशाता का अनुभव करता है, उनसे अनंतगुण विशिष्टतर व्यंतर देवो के कामभोग होते है । व्यंतर देवो के कामभोग से अनंतगुण विशिष्टतर असुरेन्द्र को छोड़कर शेष भवनपति देवो के कामभोग होते है, भवनवासी देवो से अनंतगुण विशिष्टतर असुरकुमार इन्द्ररूप देवो के कामभोग होते है, उनसे अनंतगुण विशिष्टतर ग्रहगण - नक्षत्र और तारारूप देवो के कामभोग होते है, उनसे विशिष्टतर चंद्र-सूर्य देवो के कामभोग होते है । इस प्रकार के कामभोगो का चंद्र-सूर्य ज्योतिषेन्द्र अनुभव करके विचरण करते है । [२०३] निश्चय से यह अठ्ठासी महाग्रह कहे है- अंगारक, विकालक, लोहिताक्ष, शनैश्चर, आधुनिक, प्राधूणिक, कण, कणक, कणकणक, कणवितानक, कणसंताणक, सोम, सहित, आश्वासन, कायोपग, कर्बटक, अजकरक, दुन्दुभक, शंख, शंखनाभ, शंखवर्णाभ, कंस, कंसनाभ, कंसवर्णाभ, नील, नीलावभास, रूप्य, रूप्यभास, भस्म, भस्मराशी, तिल, तिलपुष्पवर्ण, दक, दकवर्ण, काक, काकन्ध, इन्द्राग्नि, धुमकेतु, हरि, पिंगलक, बुध, शुक्र, बृहस्पति, राहु, अगस्ती, माणवक, काश, स्पर्श, धूर, प्रमुख, विकट, विसन्धिकल्प, निजल्ल, प्रल्ल, जटितायल, अरुण, अग्निल, काल, महाकाल, स्वस्तिक, सौवस्तिक, वर्धमानक, प्रलम्ब, नित्यालोक, नित्युद्योत, स्वयंप्रभ, अवभास, श्रेयस्कर, क्षेमंकर, आभंकर, प्रभंकर, अरज, विरज, अशोक, वितशोक, विमल, वितप्त, विवस्त्र, विशाल, शाल, सुव्रत, अनिवर्त्ति, एकजटी, दुजटी, करकरिक, राजर्गल, पुष्पकेतु और भावकेतु । [२०४ से २११] यह संग्रहणी गाथाएं है । इन गाथाओ में पूर्वोक्त अठ्ठासी महाग्रहो के नाम - अंगारक यावत् पुष्पकेतु तक बताये है । इसीलिए इन गाथाओ के अर्थ प्रगट न करके हमने पुनरुक्तिका त्याग किया है । प्राभृत- २० का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण [२१२] यह पूर्वकथित प्रकार से प्रकृतार्थ ऐसे एवं अभव्यजनो के हृदय से दुर्लभ ऐसी भगवती ज्योतिषराज प्रज्ञप्ति का किर्तन किया है । [२१३] इसको ग्रहण करके जड - गौरवयुक्त मानी - प्रत्यनीक - अबहुश्रुत को यह प्रज्ञप्ति का ज्ञान देना नहीं चाहिए, इससे विपरीतजनो को यथा-सरल यावत् श्रुतवान् को देना चाहिए । [२१४] श्रध्धा धृति-धैर्य - उत्साह - उत्थान-बल-वीर्य-पराक्रम से युक्त होकर इसकी शीक्षा प्राप्त करनेवाले भी अयोग्य हो तो उनको इस प्रज्ञप्ति की प्ररूपणा नहीं करनी चाहिए । यथा[२१५] जो प्रवचन, कुल, गण या संघ से बाहर निकाले गए हो, ज्ञान- विनय से हीन हो, अरिहंत - गणधर और स्थवीर की मर्यादा से रहित हो - ( ऐसे को यह प्रज्ञप्ति नहीं देना | )

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