Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 08
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 189
________________ १८८ आगमसूत्र-हिन्दी अनुवाद मनुष्यक्षेत्र की बाहिर जो चंद्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र और तारारूप ज्योतिष्क देव है, वे भी विमानोपपन्नक एवं चार स्थितिक होते है, किन्तु वे गतिरतिक या गतिसमापनक नहीं होते, पक्क इंट के आकार के समान संस्थित, लाखो योजन के तापक्षेत्रवाले, लाखो संख्या में बाहिर विकुर्वित पर्षदा यावत् दिव्यध्वनि से युक्त भोग भोगते हुए विचरण करते है । वे शुललेश्यामन्दलेश्या-आश्चर्यकारी लेश्या आदि से अन्योन्य समवगाढ होकर, कूड की तरह स्थानस्थित होकर उस प्रदेश को सर्व तरफ से प्रकाशीत, उद्योतीत, तापीत एवं अवभासित करते है । इन्द्र के विरह में पूर्ववत् कथन समझ लेना । [१९३] पुष्करोद नामक समुद्र वृत्त एवं वलयाकार है, वह चारो तरफ से पुष्करवर द्वीप को धीरे हुए स्थित है । समचक्रवाल संस्थित है, उसका चक्रवाल विष्कम्भ संख्यात हजार योजन का है, परिधि भी संख्यात हजार योजन की है । उस पुष्करोद समुद्र में संख्यात चंद्र यावत् संख्यात तारागण कोडाकोडी शोभित हुए थे-होते है और होंगे । इसी अभिलाप से वरुणवरद्वीप, वरुणवरसमुद्र, खीखरद्वीप, खीखरसमुद्र, घृतवरद्वीप, घृतवरसमुद्र, खोदवरद्वीप, खोदोदसमुद्र, नंदीश्वरद्वीप, नंदीश्वरसमुद्र, अरुणद्वीप, अरुणोदसमुद्र यावत् कुंण्डलवरावभास समुद्र समझ लेना । कुंडलवरावभास समुद्र को धीरकर रुचक नामक वृत्त-वलयाकार एवं समचक्रवाल द्वीप है, उसका आयामविष्कंभ और परिधि दोनो असंख्य हजार योजन के है । उसमें असंख्य चंद्र यावत् असंख्य तारागण कोडाकोडी समाविष्ट है । इसी प्रकार रुचकसमुद्र, रुचकवरद्वीप, रुचकवरसमुद्र, रुचकवरावभास द्वीप, रुचकवरावभास समुद्र यावत् सूखरावभास द्वीप तथा सूरवराव भास समुद्र को समझ लेना । सूरवरावभास समुद्र, देव नामक द्वीप से चारो तरफ से घीरा हुआ है, यह देवद्वीप वृत्त-वलयाकार एवं समचक्रवाल संस्थित है, चक्रवाल विष्कम्भ से एवं परिधि से असंख्य हजार योजन प्रमाण है । इस देवद्वीप में असंख्येय चंद्र यावत् असंख्येय तारागण स्थित है । इसी प्रकार से देवोदसमुद्र यावत् स्वयंभूरमण समुद्र को समझलेना । प्राभृत-१९-का मुनि दीपरत्नसागर कृत् हिन्दी अनुवाद पूर्ण (प्राभृत-२०) [१९४] हे भगवंत ! चंद्रादि का अनुभाव किस प्रकार से है ? इस विषय में दो प्रतिपत्तियां है । एक कहता है कि चंद्र-सूर्य जीवरूप नहीं है, अजीवरूप है; घनरूप नहीं है, सुषिररूप है, श्रेष्ठ शरीरधारी नहीं, किन्तु कलेवररूप है, उनको उत्थान-कर्म-बल-वीर्य या पुरिषकार पराक्रम नहीं है, उनमें विद्युत, अशनिपात ध्वनि नहीं है, लेकिन उनके नीचे बादर वायुकाय संमूर्छित होता है और वहीं विद्युत् यावत् ध्वनि उत्पन्न करता है । कोइ दुसरा इस से संपूर्ण विपरीत मतवाला है-वह कहता है चंद्र-सूर्य जीवरूप यावत् पुरुष पराक्रम से युक्त है, वह विद्युत् यावत् ध्वनि उत्पन्न करता है । भगवंत फरमाते है कि चंद्र-सूर्य के देव महाऋद्धिक यावत् महानुभाग है, उत्तम वस्त्रमाल्य-आभरण के धारक है, अव्यवच्छित्त नय से अपनी स्वाभाविक आयु पूर्ण करके पूर्वोत्पन्न देवका च्यवन होता है और अन्य उत्पन्न होता है । [१९५] हे भगवन् ! राहु की क्रिया कैसे प्रतिपादित की है ? इस विषय में दो

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