Book Title: Agam Sutra Hindi Anuvad Part 08
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Agam Aradhana Kendra

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Page 236
________________ चन्द्रप्रज्ञप्ति - १९/-/१९२ [१९२] चंद्र से सूर्य और सूर्य से चंद्र का अन्तर ५०००० योजन है । [१९३] सूर्य से सूर्य और चंद्र से चंद्र का अन्तर मनुष्य क्षेत्र के बहार एक लाख योजन का होता है । २३५ [१९४] मनुष्यलोक के बहार चंद्र-सूर्य से एवं सूर्य-चंद्र से अन्तरित होता है, उनकी लेश्या आश्चर्यकारी - शुभ और मन्द होती है । [१९५] एक चंद्र के परिवार में अट्ठासी ग्रह और अठ्ठाइस नक्षत्र होते है, अब मैं तारागण का प्रमाण कहता हूं [१९६] एक चंद्र के परिवार में ६६९०५ कोडाकोडी तारागण होते है । [१९७] मनुष्य क्षेत्र के अन्तर्गत् जो चंद्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र और तारागण है, वह क्या उर्ध्वोपपन्न है ? कल्पोपपन्न ? विमानोपपन्न है ? अथवा चारोपपन्न है ? जे देव विमानोपपन्न एवं चारोपपन्न है, वे चारस्थितिक नहीं होते किन्तु गतिरतिक-गतिसमापन्नक - उर्ध्वमुखीकलंबपुष्प संस्थानवाले हजारो योजन तापक्षेत्रवाले, बाह्य पर्षदा से विकुर्वित हजारो संख्या के वाद्य तंत्रीताल - त्रुटित इत्यादि ध्वनि से युक्त, उत्कृष्ट सिंहनाद - मधुरकलरव, स्वच्छ यावत् पर्वतराज मेरुपर्वत को प्रदक्षिणावर्त्त से भ्रमण करते हुए विचरण करते है । इन्द्र के विरह में चार-पांच सामानिक देव इन्द्रस्थान को प्राप्त करके विचरते है, वह इन्द्र स्थान जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट छ मास तक विरहित रहता है । मनुष्यक्षेत्र की बाहिर जो चंद्र-सूर्य ग्रह-नक्षत्र और तारारूप ज्योतिष्क देव है, वे भी विमानोपपन्नक एवं चार स्थितिक होते है, किन्तु वे गतिरतिक या गतिसमापन्नक नहीं होते, पक्क इंट के आकार के समान संस्थित, लाखो योजन के तापक्षेत्रवाले, लाखो संख्या में बाहिर विकुर्वित पर्षदा यावत् दिव्यध्वनि से युक्त भोग भोगते हुए विचरण करते है । वे शुललेश्यामन्दलेश्या - आश्चर्यकारी लेश्या आदि से अन्योन्य समवगाढ होकर, कूड की तरह स्थानस्थित होकर उस प्रदेश को सर्व तरफ से प्रकाशीत, उद्योतीत, तापीत एवं अवभासित करते है । इन्द्र के विरह में पूर्ववत् कथन समझ लेना । [१९८] पुष्करोद नामक समुद्र वृत्त एवं वलयाकार है, वह चारो तरफ से पुष्करवर द्वीप को धीरे हुए स्थित है । समचक्रवाल संस्थित है, उसका चक्रवाल विष्कम्भ संख्यात हजार योजन का है, परिधि भी संख्यात हजार योजन की है । उस पुष्करोद समुद्र में संख्यात चंद्र यावत् संख्यात तारागण कोडाकोडी शोभित हुए थे - होते है और होंगे । इसी अभिलाप से वरुणवरद्वीप, वरुणवरसमुद्र, खीखरद्वीप, खीखरसमुद्र, घृतवरद्वीप, घृतवरसमुद्र, खोदवरद्वीप, खोदोदसमुद्र, नंदीश्वरद्वीप, नंदीश्वरसमुद्र, अरुणद्वीप, अरुणोदसमुद्र यावत् कुंण्डलवरावभास समुद्र समझ लेना । कुंडलवरावभास समुद्र को घीरकर रुचक नामक वृत्त - वलयाकार एवं समचक्रवाल द्वीप है, उसका आयामविष्कंभ और परिधि दोनो असंख्य हजार योजन के है । उसमें असंख्य चंद्र यावत् असंख्य तारागण कोडाकोडी समाविष्ट है । इसी प्रकार रुचकसमुद्र, रुचकवरद्वीप, रुचकवरसमुद्र, रुचकवरावभास द्वीप, रुचकवरावभास समुद्र यावत् सूखरावभास द्वीप तथा सूरवराव

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