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प्रज्ञापना-३६/-/६१३
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उस जीव को कितनी क्रियाएँ लगती हैं ? वह कदाचित् तीन, चार और पांच क्रियाओंवाला होता है । आहारकसमुद्घात द्वारा बाहर निकाले हुए पुद्गलों से स्पृष्ट हुए जीव आहारकसमुद्घात करनेवाले जीव के निमित्त से भी इतनी ही क्रियावाला होता है । (आहारकसमुद्घातकर्ता) तथा आहारकसमुद्घातगत पुद्गलों से स्पृष्ट जीव, अन्य जीवों का परम्परा से घात करने के कारण कितनी क्रियाओं वाले होते हैं ? गौतम ! तीन, चार अथवा पांच क्रियावाले भी होते हैं । इसी प्रकार मनुष्य के आहारकसमुद्घात की वक्तव्यता समझ लेनी चाहिए ।
[६१४] भगवन् ! केवलिसमुद्घात से समवहत भावितात्मा अनगार के जो चरम निर्जरा-पुद्गल हैं, वे पुद्गल सूक्ष्म हैं ? वे समस्त लोक को स्पर्श करके रहते हैं ? हाँ, गौतम! ऐसा ही है । भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा-पुद्गलों के चक्षु-इन्द्रिय से वर्ण को, घ्राणेन्द्रिय से गन्धको, रसनेन्द्रिय से रस को, अथवा स्पर्शेन्द्रिय से स्पर्श को जानता-देखता है ? गौतम ! यह अर्थ शक्य नहीं है । क्योंकी-गौतम ! यह जम्बूद्वीप समस्त द्वीप-समुद्रों के बीच में है, सबसे छोटा है, वृत्ताकार है, तेल के पूए के आकार का है, रथ के पहिये के आकारसा गोल है, कमल की कर्णिका के आकार-सा गोल है, परिपूर्ण चन्द्रमा के आकार सा गोल है, लम्बाई और चौड़ाई में एक लाख योजन है । ३१६२२७ योजन, तीन कोस, १२८ धनुष साढ़े तेरह अंगुल से कुछ विशेषाधिक परिधि से युक्त है । एक महर्द्धिक यावत् महासौख्यसम्पन्न देव विलेपन सहित सुगन्ध की एक बड़ी डिबिया को उसे खोलता है । फिर विलेपनयुक्त सुगन्ध की खुली हुई उस बड़ी डिबिया को, इस प्रकार हाथ में ले करके सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को तीन चुटकियों में इक्कीस बार घूम कर वापस शीघ्र आ जाय, तो हे गौतम ! क्या वास्तव में उन गन्ध के पुद्गलों से सम्पूर्ण जम्बूद्वीप स्पृष्ट हो जाता है ? हाँ, भंते ! हो जाता है भगवन् ! क्या छद्मस्थ मनुष्य उन घ्राण-पुद्गलों के वर्ण को चक्षु से, यावत् स्पर्श को स्पर्शेन्द्रिय से किंचित् जान देख पाता है ? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । इसी कारण से हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि छद्मस्थ मनुष्य उन निर्जरा-पुद्गलों के वर्ण को नेत्र से, यावत् स्पर्श को स्पर्शेन्द्रिय से किंचित् भी नहीं जान-देख पाता । वे (निर्जरा-) पुद्गल सूक्ष्म हैं तथा वे समग्र लोक को स्पर्श करके रहे हैं ।
[६१५] भगवन् ! किस प्रयोजन से केवली समुद्घात करते हैं ? गौतमः ! केवली के चार कर्मांश क्षीण नहीं हुए हैं, वेदन नहीं किये हैं, निर्जरा को प्राप्त नहीं हुए हैं, वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र । उनका वेदनीयकर्म सबसे अधिक प्रदेशी होता है । आयुकर्म सबसे कमप्रदेशी होता है । वे बन्धनों और स्थितियों से विषम को सम करते हैं । बन्धनों और स्थितियों के विषम कर्मों का समीकरण करने के लिए केवली केवलिसमुद्घात करते हैं । भगवन् ! क्या सभी केक्ली भगवान् समुद्घात करते हैं ? तथा क्या सब केवली समुद्घात को प्राप्त होते हैं ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है ।
[६१६] जिसके भवोपग्राही कर्म बन्धन एवं स्थिति से आयुष्यकर्म के तुल्य होते हैं, वह केवली केवलिसमुद्घात नहीं करता ।।
[६१७] समुद्घात किये बिना ही अनन्त केवलज्ञानी जिनेन्द्र जरा और मरण से सर्वथा रहित हुए हैं तथा श्रेष्ठ सिद्धिगति को प्राप्त हुए हैं ।
[६१८] भगवन् ! आवर्जीकरण कितने समय का है ? गौतम ! असंख्यात समय के